लोक संस्कृति की सजग प्रहरी सांझी कला
भारतीय लोककलाएं जहां एक ओर हमारी लोक संस्कृति की सजग प्रहरी हैं वहीं उनमें भारतीय संस्कृति के विराट स्वरूप और उसके सौंदर्य बोध के दर्शन होते हैं। इन लोककलाओं में चित्रकला का महत्व अधिक है क्योंकि, चित्रकला जहां सर्वाधिक सम्प्रेषण लिए होती है वहीं इसमें संस्कृति के विराट स्वरूप और सौंदर्यबोध का दर्शन परिलक्षित होता है। इन कलाओं में एक कला है सांझी कला की संस्कृति का स्वरूप जो श्राद्ध पक्ष में संझा फूली के रूप में मनाई जाती है। कला जगत की सांझी कला का मुख्यरूप से फूल संस्कृति का सौंदर्य लिए प्रतिष्ठित और विविध रंगावलियो से सराबोर फूल संस्कृति का चेतन सौंदर्य लिए मुखरित होती है।
क्वार माह रंग बिरंगे फूलों की प्रचुर उपलब्धता
क्वार मास का प्रारंभ यानी शरद ऋतु का आगमन जिसमे रंग-आकृति और गंध वाले फूलों की बहुतायत देखने को मिलती है। ये फूल केवल कला की उत्कृष्टता को इंगित नहीं करते वरन उनकी
समग्र सुगंधावली का भी प्रस्फुटन करते हैं। इसी प्रकृति उल्लास के साथ बालिका पर्व यानी सांझी का शुभारंभ होता है। संझा बनाते समय लड़कियां एक एक फूल और उसकी पंखुड़ी को बड़े जतन से सहेजती हैं। संझा की ऋतु में जो फूल जिस अंचल में खिले मिलते हैं उन्हीं से संझा सजाई जाती है। मालवा तथा निमाड़ के क्षेत्रों में गुलगट्टे, गुलबास, गुलतेवड़ी के अलावा चंपा, चमेली, गुलाब, चांदनी, कनेर,गेंदा और अन्य फूल अधिकता में पाए जाते हैं
गोबर से किया जाता है अंकन
संझा के अंकन के समय लड़कियां एक एक फूल और उसकी पंखुड़ियों से गोबर से अंकित संझा की आकृति पर श्रृंगार करती हैं। संझा का मूल अंकन गोबर से किया जाता है क्योंकि, गोबर से किसी भी तरह की आकृति को सरलतापूर्वक उभार दिया जा सकता है और यह शीघ्र सूखता भी नहीं है। गाय के गोबर को मंगलिकक तथा पवित्र माना गया है। इसमें भी लड़कियां कुंवारी गाय अर्थात बछिया के गोबर का उपयोग करती हैं। गोबर को पानी मे मथकर लुगदी जैसा बनाया जाता है जिससे उस पर फूल और पत्तियां आसानी से चिपक जाते हैं।
संझा को सफेद फूल अति प्रिय
संझा को फूल और पंखुड़ियों से श्रंगारित करते समय इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि कोई फूल अथवा पंखुड़ी नीचे नहीं गिरने पाए। अगर गिर जाती है तो उसका उपयोग संझा सज्जा के लिए नहीं किया जाता है। गौरवर्णा संझा को सफेद फूल सर्वाधिक प्रिय है। अपने पहनावे में वह फूलों के बूटों को अधिक महत्व देती थीं। उसका घाघरा फूल भांत का था। आम रंग के घाघरे पर करेले भांत की बूटियां उसे अधिक सुहाती है। शादी के बाद वह छटापटा का, विभिन्न फलों के रंगों वाला अलग अलग रंगों की कलियों का घाघरा सिलवाने के लिए अपने बाबुल से कहती। उसके चीर पर
छाबड़ी के भांते होते है। सहेलियां जब सांझी को पहनने ओढने के लिए पूछती हैं तो संझा अपना पसंदीदा पहनावा चूंदड़ ओढने ओर मिसरू पहनने को कहती। सिर पर सोने का बोर और मोतियों से मांग भरने को कहती। आभूषणों में बिछिया, पायजेब, आंखों में काजल, माथे पर टीकी लगाती। पान, हरिया गोबर, गेंदा फूल और सुंदर गहने कपड़े की हूंस बनी रहती है।
परिवार से जुड़ाव की शिक्षा का पाठ
संझा बालिकाओं के मांडने उकेरने और रंग संयोजन के साथ ही घर परिवार से जुड़ाव की शिक्षा का पाठ भी है। यह इन्हें यही संस्कार देती है। उनकी रुचियों को कलात्मक बनाती है। संझा के एक गीत के अनुसार,, फूलों के माध्यम से जहां संझा का सतीत्व और पतिव्रत धर्म झलकता है वही कुँवारियों के भावी जीवन के चारित्रिक आदर्श को बनाए रखने की सीख भी मिलती है।
संझा के माध्यम से हमार संस्कृति के जितने भी सरोकार हैं उन सभी की प्राथमिक जानकारी और उनके निर्वाह की प्रक्रिया से बालिकाओं के सुंदर परिचय और सुखद प्रशिक्षण हो जाता है। गृहस्थ जीवन में धार्मिक और सामाजिक अनुष्ठान की मनोती करना, देवी देवताओं की पूजा करना, सामूहिक उल्लास में स्वयं की भागीदारी, सबके लिए सुख समृद्धि व मंगल कामना ये सब ऐसे प्रसंग हैं जो हर किसी के लिए आनंददायक हैं।
पूर्वजों से जुड़ने का अवसर भी देती है
संझा के चित्रण में कुँवारे-कुवांरी जहां कौमार्य जीवन के महत्व को अंकित करते हैं वहीं नवमी को डोकरे व डोकरी के अंकन बुजुर्गों के प्रति आदरभाव दर्शाते हैं। इसके अंतर्गत यह भाव होता है कि जिन कुँवारे कुँवारियों अथवा बूढ़े बुढ़िया का निधन हो गया है उन्हें स्मरण करना है। पंचमी को कुँवारी पांचम और नवमी को डोकरा नोमी कहा गया है। सप्तमी को हत्यारी सातम कहा गया है। इस दिन ऐसे वीर की आकृति उभारी जाती है जिसकी मृत्यु किसी के द्वारा करने से हुई हो अथवा स्वयं आत्महत्या की हो। ये मृत आत्माएं अशरीरी मानी जाती है जो अदृश्य होती है और जो बगैर मान सम्मान और प्रतिष्ठा के भटकती रहती हैं। इसलिए वर्ष में एक बार श्राद्ध पक्ष में इनका स्मरण कर इनका धूप ध्यान किया जाता है। यह भाव हमारे पूर्वजों से जुड़ने का अवसर देता है।
शुद्ध पर्यावरण की पोषक
कला जगत की इस चित्र पध्दति के जहां आधुनिक भारत्तीय चित्रकला में क्रांतिकारी परिवर्तन की सार्थकता से इंकार नहीं किया जा सकता वही यह पर्यावरण संस्कृति की दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं है।
फूल पत्ते , गोबर और आधार रूप में चौक बनाने के लिए जो गोबर मिश्रित पीली मिट्टी, गेरू अथवा हिरमची काम में ली जाती है वे शुद्ध पर्यावरण की पोषक हैं। जिनसे जीवन को नई चेतना और स्फूर्ति मिलती है।
इस वर्ष कोरोना संक्रमण के चलते केवल राजनीतिक कार्यक्रमो को छोड़ दें तो सभी धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक आयोजन जिस स्तर पर होना चाहिए नहीं हो पाए। शायद चौथे अनलॉक में बड़े पैमाने पर नहीं लेकिन प्रतीकात्मक ही हो पाए। इस वर्ष तो कोरोना संक्रमण कारण हो सकता हो लेकिन यह विडंबना ही कही जाएगी कि आधुनिक समय में शहरों को अगर छोड़ दिया जाए तो केवल मालवा, निमाड़ व राजस्थान के ग्रामीण अंचलों में अभी भी यह पूरे उत्साह से मनाया जाता है। एक समय था जब यह पर्व श्रद्धा और उत्साह से मनाया जाता था लेकिन, कच्ची दीवारों पर सीमेंट की परत ने इस संस्कृति को जैसे लुप्त कर दिया है। आज जरूरत है की बालिकाएं मन की उजली कला, रुचियों को उभारें। इसके साथ ही जरूरत है इस सादगीयुक्त विधा को सशक्त कलाकार की तूलिका की जिसके माध्यम से यह जनजीवन में प्रचारित हो सके।
पाठक
निशिकांत मंडलोई, इंदौर