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एमपी में शिवराज की सरकार के विरोध में नेहा का गीत
15, Jul 2023 1 year ago

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          साहित्य समाज का दर्पण होता है। कविता, गीत, गजल यह साहित्य की विधा है। इन विधाओं का काम राग दरबारी कभी नहीं रहा है। यह विधाएं सत्ता के कुकर्मो के खिलाफ जनता के गुस्से से पैदा होती है। जनता की आवाज बनकर सत्ता और सरकार के खिलाफ लिखने, पढ़ने और बोलने वाली कलम लंबे समय तक जनता की स्मृतियों में बनी रहती है इसके विपरीत सरकारों की प्रशंसा में भाटगिरी करने वाले गीतकारों, साहित्यकारो, चित्रकारों, फिल्मकारों, पत्रकारों को जनता तभी तक याद रखती है। जब तक वह सरकार बनी रहती है, जिसकी प्रशंसा में लिखा या गाया गया है। सत्ता या नेता की झूठी तारीफ साहित्य की इन विधाओं को भी कलंकित करती है। दरअसल साहित्य का मूल स्वभाव ही विरोध है। इस दौर में जब दृश्य और प्रिंट मीडिया पर सरकार की झूठी तारीफों के आरोप लग रहे है। गोदी मीडिया जैसे लांछन से पत्रकारिता को लांछित किया जा रहा है। अपने निजी स्वार्थों से प्रभावित वर्तमान दौर की पत्रकारिता अपने मूल स्वभाव के विपरीत सरकारों की प्रशंसा के गीत गाने में व्यस्त दिखाई दें रही हो। 

          ऐसे समय भोजपुरी लोकगायिका नेहासिंह राठौड़ ने काव्य की गीत विधा का उपयोग कर सरकारी अव्यवस्था को अपने गीत के माध्यम से उजागर किया है। नेहा इससे पूर्व योगी सरकार पर भी यूपी में 'काबा' गीत के माध्यम से हमले कर चुकी है। इस बार एमपी में शिवराज सिंह की सरकार पर हमला किया है। एमपी में 'काबा' गीत के बाद भाजपा की महिला इकाई ने प्रदेश भर में ज्ञापन देकर विरोध दर्ज कराया। यही विरोध नेहा के गीत के प्रचार का माध्यम बन गया। एमपी में 'काबा' गीत लांच करने के पूर्व एक कार्टून को शेयर करने पर नेहा के खिलाफ एमपी में तीन एफआईआर भी दर्ज की गई। नेहा ने कहा अब एफआईआर से डर नहीं लगता। लगातार सरकारों के खिलाफ गाने वाली इस भोजपुरी गायिका पर विपक्ष के एजेंट होने का आरोप लगता रहता है। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया कुछ लोग मुझे कांग्रेस का एजेंट बताते हैं, कुछ सपा और कुछ आमआदमी पार्टी का एजेंट बताते हैं, बिहार में भी ऐसी अफवाह है। सच सभी जानते है, मैं सिर्फ विपक्ष में हूँ। हर राज्य में जो भी पार्टी विपक्ष में है, मैं उनके साथ हूँ। विपक्षी पार्टी जब सत्ता में आ जाएंगी तो यही मुझे अपने विपक्ष में खड़ा पाएगी। केंद्र में जो भी पार्टी विपक्ष में है, मैं उनके साथ हूँ। सरकारें बदल जाएंगी पर मैं विपक्ष में ही रहूंगी। एक लोक-कलाकार को जनता के पक्ष में रहकर सरकार से सवाल करना चाहिए। यही उसका धर्म है, मैं अपने धर्म के साथ हूँ, मैं लोकतंत्र के साथ हूँ। 

          नेहासिंह राठौड़ का यह बयान सही मायने में साहित्य के वास्तविक मानकों का प्रतिनिधित्व है। नेहासिंह भी सरकार की प्रशंसा में लगे अनगिनत पत्रकारों, साहित्यकारों, फिल्मकारों, गीतकारों की पंक्ति में खड़ी हो सकती है। अपने खिलाफ हो रही पुलिस रिपोर्ट से घबराकर सरकारों के पक्ष में गीत गा सकती है। किन्तु इस लोकगायिका ने साहित्य के वास्तविक चरित्र को जीवित रखते हुए लोकगायिका होने के अपने दायित्व को निभाया है। गीतकार, साहित्यकार अपने युग की आवाज होतें है। जनता की पीड़ाओं दुखो को बेबाकी से व्यक्त करते है। जनसामान्य की तखलीफ़ों के प्रवक्ता होते है। लोकतंत्र और साहित्य एक दूजे के पर्याय है। विरोध की आवाज जनता के मध्य चिरस्थाई स्मृति के रूप में बनी रहती है। 

          ऐसा ही एक कवि जिसने आपातकाल के दौरान लिखा था 'मत कहो आकाश में कोहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।' जब आपातकाल के दौरान बोलने की आजादी पर भी सरकारी प्रतिबंध लग गए थै। उस दौरान दुष्यंत कुमार सत्ता के खिलाफ आवाज बनकर उभरे उन्होंने लिखा था' रहनुमाओं की अदाओं पर फिदा है दुनिया, इस भटकी हुई दुनिया को संभालो यारो।' अब भी जहां सरकार के विरोध की बात आती है। हिंदी के कालजयी कवि दुष्यन्त कुमार की पक्तियां बरबस जहन में आ जाती है। नेहासिंह के गीतों में दुष्यंत की छवि दिखाई दे रही है। नेहासिंह के गीतों में बाबा नागार्जुन का प्रतिबिंब भी दिखाई दे रहा है। जो आपातकाल के दौरान सरकारी अन्याय के विरुद्ध अपनी कविता में कहते है। 'उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक, जिसमे कानी हो गयी शासन की बंदूक।' सरकारें जनता द्वारा ही चुनी जाती है। जब वह जनता पर ही अन्याय करने लगें। तब लोकतंत्र में कविता और गीतों ने विपक्ष की भूमिका निभाई है। अपने नए पैरोडी गीत में नेहा ने मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार पर निशाना साधा है। सीधी में आदिवासी युवक के कपाल पर पेशाब की घटना को गीत में रेखांकित किया है। 

          आदिवासी उत्पीड़न, पटवारी भर्ती परीक्षा में गड़बड़ी, व्यापम घोटाला, महाकाल लोक में भ्रष्टाचार, बेरोजगारी समेत कई मुद्दों पर सरकार को घेरा है। लाडली बहना को एक हजार रु देने वाली कर्ज में डूबी सरकार पर महिलाओं को रोजगार उपलब्ध कराने में नाकाम रहने का आरोप लगाया है। नेहा ने अपने गीत के अंत मे कहा एक शकुनि मामा थै, एक कंस मामा थै, कलयुग में यह मामा नया अवतार है। अपने भोजपुरी गीत के माध्यम से एमपी की सरकार को घेरने वाली नेहासिंह के इस गीत पर भले राजनीति हो रही हो, किन्तु गीतों के माध्यम से सच बयान करना एक कलाकार की महती जवाबदेही भी है। नेहा ने कहा वह अपने धर्म को निभा रही है। दरअसल सरकारों का दायित्व है कि वह जनता के हितों का ख्याल रखें। जब सत्ता के अहंकार में सरकार और सत्ता में शामिल नेता, अफसर जनहितों की उपेक्षा करने लगतें है, तब साहित्यकारों, पत्रकारों, गीतकारों का धर्म है, वह अहंकारी सत्ता के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करें। 

          कालजयी रचनाकार बाबा नागार्जुन, साहसी कवि दुष्यंत कुमार, इसी क्रम में सच को सच कहने, लिखने और बोलने का साहस रखने वाले सुदामा पांडे धूमिल जिन्होंने अपनी रचना में व्यक्त किया 'मुझसे कहा गया कि संसद देश को प्रतिम्बित करने वाला दर्पण है, जनता को जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है, लेकिन क्या यह सच है, या यह सच है कि, अपने यहाँ संसद तेली की वह घानी है, जिसमें आधा तेल है आधा पानी है, और यह सच नहीं है तो, यहॉं ईमानदार आदमी को अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है, जिसने सत्य कह दिया उसका बुरा हाल क्यों है।' धूमिल की यह रचना देश के ईमानदार और मेहनती आदमी दुर्दशा को व्यक्त करने वाली थी। इस रचना ने अपने दौर की सच्चाई को उजागर किया था। अपने कवि धर्म का निर्वहन किया था। धूमिल, दुष्यंत और बाबा नागार्जुन भी रागदरबारी गा सकते थै। सरकारों की जी हुजूरी में कविताएं लिख सकते थै। इन महान रचनाकारों ने सरकारों के तलवे चाटने के स्थान पर सरकारों के कुकर्मो को अपनी रचनाओं में व्यक्त किया। ये रचनाकार अब भी जनता की जुबान पर है। जब भी संघर्षों की बात होगी यह रचनाकार दोहराए जातें रहेंगे। 

          सत्ता के उस दौर में चापलूस रचनाकार भी होंगे जिन्हें कोई याद नहीं करता। नेहासिंह ने भी संघर्ष का रास्ता चुना है। सरकारों के प्रंशसा गीत आज भी गाए जाते है। ऐसे गीतकारों, साहित्यकारों को जनता याद नहीं रखती। किँतु विरोध की आवाज बनी नेहा ने अपने लोकगीतों से अपने दौर की जमीनी सच्चाई को निडरता से व्यक्त किया है। नेहा ने विरोध का रास्ता चुनकर इन महान रचनाकारों की श्रेणी में स्वयं को खड़ा किया है। साहित्य में सच को व्यक्त करने का साहस होना चाहिए। नेहा ने एक महिला होने के बावजूद भी भोजपुरी लोकगीतों के माध्यम से सत्ता पर चोट करने का जो रास्ता चुना है। यह रास्ता संघर्ष का रास्ता है। किंतु जनता की भलाई का रास्ता है। लोकतंत्र में जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर नेता जहर उगल रहे हों। तब जनता की आवाज बनकर आमजन की बात साहस के साथ कहना, सरकारों की आंख में आंख डालकर उत्पीडन, शोषण और भ्रष्ट आचरण को उजागर करना नेहा का सराहनीय प्रयास है। जिन्हें पुरुस्कार का हकदार होना चाहिए। वह एफआईआई की अधिकारिणी बन जाए। यह सरकारों की अंहकारी मानसिकता उदाहरण है। नेहा आमआदमी की जुबान पर है। हर एफआईआर नेहा के गीत की उपयोगिता बड़ा रही है। उसे महान साहित्यकारों, गीतकारों के समकक्ष खड़ा कर रही है।


लेखक :- नरेंद्र तिवारी

सेंधवा, जिला बड़वानी।


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