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1990 मे अयोध्या की कारसेवा के लिए सात कारसेवक जय श्रीराम का नारा लगाकर अयोध्या के लिए निकल पड़े थे...
Report By: विक्रमसिंह राठौर 21, Jan 2024 6 months ago

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माही की गूंज, अमझेरा।

          श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के लिए 1990 की कारसेवा में  अमझेरा से भी 7 युवा राम भगवान का नाम लेकर निकले थे जिनमें निलाबंर शर्मा, अरूण शर्मा, धीरेन्द्र रघुवंशी, गोपाल गुप्ता, सुरेश राठौड़, बाबुलाल सेन, जगदीश ब्रजवासी सम्मिलीत थे। इस संबंध में कारसेवक अरूण शर्मा जो अब शिक्षक है उन्हौने अपने अनुभव सांझा करते हुए बताया कि, उत्तरप्रदेश में चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी। रास्तेभर हर गाँव-शहर में प्रवेश के पूर्व पुलिस के अवरोधक लगे हुए थे। तलाशी ऐसी होती कि जरा भी संदेह हुआ तो आप गए जेल के अंदर। तत्काल गिरफ्तारी हो जाती। हम लोग तय समय और दिवस पर अयोध्या तो नहीं पहुँच सके लेकिन जिस जगह भी गिरफ्तार होकर जेल में निरुद्ध हुए उसी भूमि को राममय बना दिया। श्री शर्मा ने बताया कि, 25 अक्टूबर 1990 को कारसेवकों का सरदारपुर तहसील का दल संतोष खाबिया के नेतृत्व में रवाना हुआ। इंदौर तक बस की यात्रा की तथा इंदौर से नर्मदा एक्सप्रेस से सतना पहुँचे। ट्रेन में सहयात्रियों का कारसेवकों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार था इसलिए रिजर्वेशन न होने के बावजूद हम लोगों को रिजर्व कोच में आसानी से जगह मिल रही थी। सतना से चित्रकूट व चित्रकूट से कर्वी तक की दूरी पैदल तय की। रास्तेभर ग्रामीण व शहरी रामभक्तों ने हमारा मार्गदर्शन किया। कर्वी से इलाहाबाद की यात्रा कभी बस से तो कभी अन्य साधनों से की। जगह-जगह पुलिस के अवरोधक व तलाशी के कारण हम लोग भी बहुत सतर्क थे। मन में एक ही जज्बा था कि कैसे भी करके अयोध्या पहुँचना है। बालू रेत के एक ट्रक में हम लोगों ने मजदूर का भेष बनाया। गमछा-बनियान पहनकर सफर किया। कपड़ों की थैली, भगवा दुपट्टा और अन्य सामान बालू रेत में दबा दिया। ट्रक ड्राइवर रामभक्त था उसने हमारी बहुत मदद की। 28 अक्टूबर की शाम जैसे-तैसे इलाहाबाद पहुँचे। इलाहाबाद में सरस्वती शिशु मंदिर में भोजन व विश्राम के बाद अगली सुबह हमारी मंजिल प्रतापगढ़ होते हुए सुल्तानपुर तक थी। यह सफर बहुत कठिन था क्योंकि जैसे-जैसे हम अयोध्या की ओर बढ़ रहे थे वैसे-वैसे तलाशी व सुरक्षा अभियान बहुत कड़ा हो गया था। एक-एक संदिग्ध की पूरी तलाशी ली जाती। धीरे-धीरे कर हमारे सारे साथी गिरफ्तार कर लिए गए। मैं और धीरेंद्र रघुवंशी अपना सफर जारी रखे हुए थे। बस से हमने प्रतापगढ़ पार कर लिया और सुल्तानपुर की तरफ बढ़ चले। एक चौकी पर तलाशी के दौरान भाषाई अंतर से धीरेंद्र रघुवंशी को पुलिस ने पहचान लिया कि ये व्यक्ति उत्तरप्रदेश का नहीं है और हमारी भी  गिरफ्तारी हो गई। प्रतापगढ़ की एक अस्थायी जेल (स्कूल) में रखा गया। वहाँ से हम दोनों भाग निकले। सुल्तानपुर की ओर पैदल ही चल पड़े लेकिन रास्ते में फिर गिरफ्तार कर लिए गए। पुलिस की लाठियों और बूटों का जोरदार प्रहार सहा। मुँह में था तो बस जय श्रीराम का जाप। वहाँ से जीप के द्वारा नैनी जेल इलाहाबाद ले जाया गया। नैनी जेल में हमारे सारे साथी मिल गए साथ ही हमारे एक और साथी  घाटाबिल्लोद के गिरीराज शर्मा भी मिल गये । नैनी जेल बहुत सुंदर है। किसी तीर्थ से कम नहीं क्योंकि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कई महापुरुष इसी जेल में बन्द थे। पूरी नैनी जेल कारसेवकों के कारण राममय हो गई थी। सब दूर कारसेवक ही कारसेवक। प्रेरणा गीतों व भजनों का दौर चलता। ’जागो तो एक बार जागो जागो तो......।’ ’श्रीराम जयराम जय जयराम।’ हनुमान चालीसा, सुंदरकांड, श्रीरामरक्षास्त्रोत का पाठ होता। इलाहाबाद के स्वयं सेवक प्रतिदिन एक वेन में भरकर दूध, फल, ब्रेड, बिस्किट जैसी खाद्य सामग्री लाते और कारसेवकों में वितरित कर जाते। जिसे जो लगा ले लिया। जेल में हम लोग भंडारे में सहयोग करते। भोजन-प्रसादी बनाना और करसेवकों को वितरित करना। जेल में आवश्यकता से अधिक बंदी होने के कारण जेल की व्यवस्था चरमरा गई थी। लगभग तीन-चार हजार कारसेवक और कैदी अलग। कैदियों को सुरक्षा की दृष्टि से अलग बैरकों में रखा गया था। कारसेवकों के जेल में इधर-उधर घूमने की छूट थी।

30 अक्टूबर की शाम हमें पता चला कि अयोध्या में लाठी-गोली चालन के कारण कई कारसेवक हताहत हुए हैं। कुछ की मृत्यु हुई है। जेल में मुलायम विरोधी नारे लगने लगे। कारसेवक सरकार विरोधी नारे लगा रहे थे। कोई उन्हें रावण तो कोई धर्मद्रोही तो कोई विधर्मी कह रहा था। जेल में कारसेवक उग्र हो गए। सब जेल तोड़ने की बात करने लगे। कल्याणसिंह (बीजेपी नेता) हम लोगों के साथ ही नैनी जेल में बन्द थे। उन्होंने मामला शांत किया। 30 अक्टूबर की घटना के बाद सभी कारसेवक अयोध्या जाने को लालायित थे। 2 नवम्बर को पुनः गोली चालन की घटना ने आग में घी का काम किया। कारसेवक पुनः उग्र हो गए।  सब बलिदान को तैयार थे। घर-परिवार का मोह नहीं था। जेल में बन्द पुराने कैदी जो कि नम्बरदार कहलाते थे उन्हें कारसेवकों की देखरेख में लगा दिया। धीरे-धीरे मामला शांत होने लगा और जेल से कारसेवकों की रिहाई शुरू हुई। पहली बार ऐसा हुआ कि रामभक्ति अपराध बन गई थी। थोड़ी-थोड़ी संख्या में कारसेवक रिहा होने लगे। मेरा और धीरेंद्र रघुवंशी का नम्बर सबसे अंत में आया जबकि हमारे सभी साथी 2-4 दिन पहले ही रिहा हो गए थे। 2 दिन हम दोनों कल्याणसिंह जी व शिरीष चंद्र सक्सेना (एडवोकेट) के साथ रहे। 15 दिन बाद जेल से रिहाई हुई वहाँ से अयोध्या पहुँचे। श्रीराम जन्मभूमि की माटी को प्रणाम किया रामलला के दर्शन किए। घर की ओर प्रस्थान किया। इधर यह अफवाह फैल गई कि पप्पू (धीरेंद्र) और अरुण के अस्थिकलश आ रहे हैं। काश! ऐसा हो जाता.....। खैर पूरे इलाके में सन्नाटा छा गया। आखिर कैसे हो गया ये सब? अखबारों में नाम खोजे जाने लगे। कुछ लोग हम दोनों की खोज-खबर में अमझेरा से अयोध्या निकलने वाले थे। संघ कार्यालय पर सम्पर्क किया जाने लगा। हमारे कुशलतापूर्वक अमझेरा पहुँचने पर सबकी जान में जान आई। आज 33 वर्षों के बाद मन बहुत प्रसन्न है कि हमारी तपस्या अब जाकर पूर्ण हुई। जीवन में एक और उत्सव आ गया। जिस सपने को देखते थे वो हकीकत में बदल गया। सैकड़ों वर्षों का संघर्ष अब थमने को है। राम को अब आराम मिलेगा। प्राण-प्रतिष्ठा का आमंत्रण मिला है। हम सभी लोग पुनः अयोध्या जाने को बेताब हैं... उस भूमि को नमन करने जो हम सबकी आस्था का केंद्र है। हालांकी हमे इस बात का भी दुःख है कि, हमारे दो साथी बाबुलाल सेन व जगदीष ब्रजवासी ब्रहमलीन हो गए।


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