सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् ।
जो सब अन्यों के वश में होता है वह दुःख है, जो सब अपने वश में होता है वह सुख है ।
आत्मनिर्भर भारत मतलब विदेशो की बैसाखी का सहारा छोड स्वयं के पैरो पर खडा भारत, अपनी आत्मा पर निर्भर भारत और भारत की आत्मा उसकी ज्ञान, संस्कृति, सिद्धांत व मूल्य आधारित व्यवस्थायें है, अर्थव्यवस्था जिसका की एक महत्वपूर्ण अंग है । वैश्विकस्तर पर सदा खुली रहने वाली इस अर्थव्यवस्था का स्वरूप आत्मकेन्द्रित ना होकर वसुधैव कुटुम्बकम् के सिद्धांत से प्रेरित है ।
भारत सिर्फ एक देश नहीं अपितु एक राष्ट्र है, जिसकी संपूर्ण विश्व में अलग संस्कृति, झलक व पहचान है । यहाँ के ऋषि-मुनि ज्ञान की पराकाष्ठा थे तथा विश्व में ऐसी कोई स्थिती परिस्थिती ना थी जिससे वे अनभिज्ञ थे तथा इसिलिये यह विश्व मे अग्रणी, ज्ञानदूत तथा शांतिदूत रहा । उन्ही के परिश्रम, आध्यात्मदर्शन व व्यवहारिक कुशलता के कारण भारत प्रारंभ से ही आत्मनिर्भर रहा किंतु विदेशी आक्रांताओ ने उस सुख, समृद्धि और वैभव की लूट व बंदरबाट की चाह मे आक्रमणो के माध्यम से भारत के प्राचीन, ऐतिहासिक, पौराणिक ज्ञान कौशल को नष्ट किया ।
किसी भी देश की आर्थिक, सामाजिक उन्नति, सुखशांति व आंतरिक सुरक्षा उसके नागरिको के संयम,परिश्रम एवं कौशल पर निर्भर करती है एवं इनके बिना संपूर्ण राष्ट्र की नैतिकता व अर्थव्यवस्था पंगु होकर अपनी विशिष्टता खो देती है जो कि पिछले कई वर्षो में भारत के साथ हुआ । आज हमें अपने राष्ट्र का पुनर्निर्माण करके इसकी वैभवशाली ऐतिहासिक अर्थव्यवस्था एवं परंपराओं को पुनर्जिवित करने के लिये अथक परिश्रम की आवश्यकता है तथा उसी परिश्रम को आत्मनिर्भर भारत की संज्ञा दी गई है ।
आज पूरा विश्व एक भयावह कोरोना संकट का सामना कर रहा है तथा भारत का इससे संघर्ष और महत्वपूर्ण इसलिये हो जाता है क्योकि इस समय अन्य देश स्वयं को बचाने मे लगे है एवं भारत इस आपदा को एक स्वर्णिम अवसर बनाने की दृष्टि से देख रहा है । किसी भी राष्ट्र का वास्तविक विकास चाहे वह आर्थिक हो या सामाजिक, उसका अंदाजा लगाने का पैमाना यह भी है कि वह सामाजिक अथवा स्वास्थ्य संकट के समय यह स्वयं एक राष्ट्र के रूप में कहाँ खडा है, वह उस समय स्वयं उबरने की क्षमता, साहस रखता है अथवा किसी ओर देश की ओर ताकने में विश्वास रखता है । चूँकि हम अनंतकाल से एक राष्ट्र के रूप में स्थापित है अतः संकटकाल में हमारी एक जिम्मेवारी यह भी बनती है कि हमारे द्वार पर कोई अन्य देश हमसे सहयोग प्राप्त करने की आशा में खडा हो, तो वह खाली हाथ ना लौटे जो कि हमने विभिन्न देशों को चिकित्सकीय सहायता पहूँचाकर सिद्ध भी करके दिखाया । आज जब संपूर्ण विश्व में आयात-निर्यात का बाजार एक थमें पहिये की भाँती है तब हम अन्योन्य देशों का सहारा बनकर खडे हुए है, यह संभव हो सका है तो सिर्फ और सिर्फ हमारी विश्वकल्याण केन्द्रित आत्मनिर्भरता के कारण और ऐसे समय में जब विदेशों से आयात थमा है तब स्थानीय उद्योग एवं उनके उत्पाद ही देश का सहारा बनके खडे है और इस संकट से गुजर रहे एक बडे वर्ग का यथासंभव सहयोग कर पा रहे है जो कि हमारे ही सहयोग का परिणाम है ।
अतएव यह स्पष्ट है कि जब स्वयं को सिद्ध करने की चुनौती हो एवं सक्षम राष्ट्र के रूप में खडे होने का अवसर हो तब स्थानीय उत्पादों पर आधारित स्वदेशी मजबूत अर्थव्यवस्था ही संबल बनकर देश को अपने कंधो पर उठाये रखती है और इसी के साथ उस संकल्प का भी जन्म होता है जो हमारे स्थानीय उत्पादों को उस वैश्विक बाजार में पहूँचाने का कार्य करता है जिस वैश्विक बाजार से हम आयात किया करते है । इस संकल्प को सिद्धी तक पहूँचाने का भार ना सिर्फ सरकार पर अपितु हर नागरिक, संपूर्ण सभ्य समाज पर है । वर्ष 1835 के पहले भारत हर क्षेत्र में विकसित होकर एक महाशक्ति के रूप मे खडा था तथा विश्वस्तर पर हमारा निर्यात 33 प्रतिशत था । 36 प्रकार के विभिन्न स्थानीय उद्योगों के माध्यम से 2000 प्राथमिक उत्पादों के आधार पर कुटीर व लघु उद्योग की अर्थव्यवस्था विकसित थी, वृहद स्तर कार्य इससे अलग था और इन सबके पीछे की संकल्पना थी वो थी आत्मनिर्भर भारत । आज उसी संकल्प को हम दोहरा रहे है जिसमें कई स्तरो पर प्रयास करने की महती आवश्यकता है जैसे कृषि उत्पाद क्षेत्रो को बढावा देना, ग्रामीण स्तर पर रोजगार उन्मूलक सृजनात्मक साधनो का उपलब्ध कराना, स्वास्थ्य सेवाओं की पहूँच ग्रामीण स्तर तक हो क्योंकि आज भी एक बडा वर्ग निर्धनता के कारण स्वास्थ्य लाभ से वंचित है जिसका असर उसकी पूरी पीढी व उसकी कार्यक्षमता पर पडा है । एक आत्मनिर्भर राष्ट्र बनने की इस कडी में नागरिको का दर्शन व चिंतन एक उचित दिशा में हो अतः उसकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबंधन उद्यमिता विकास एवं राष्ट्रीय हितों पर केन्द्रित होने के साथ विश्वबंधुत्व की भावना मे अभिरूचि उत्पन्न करने वाला हो ऐसी एक व्यवस्था खडी करना भी हमारी प्राथमिकता होना चाहिये । स्वदेशी का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि वह राष्ट्र के ही नागरिकों के स्तर की आवश्यकता और निजी विशेषताओं को ध्यान में रखकर ही निर्मित किया जाता है, देश के लाखो श्रमिको का श्रम उसे सम्माननीय बनाता है तथा उपभोगकर्ता की आत्मीयता उससे बंधी हुई होती है व संपूर्ण लाभांश राष्ट्र के विकास में ही जाता है ।
अतः आज हम सभी का दायित्व यही है कि आत्मनिर्भर भारत के संकल्प को सिद्ध करने के लिये भाषा व व्यवहार को स्वदेशी बनाते हुये इस विशाल अर्थव्यवस्था के स्वदेशीकरण में अपना सहयोग प्रदान करें, क्योंकि आत्मनिर्भर भारत प्रकृति पर्यावरण का संरक्षक है, समाज का आधार है । आत्मनिर्भर भारत राष्ट्र के उत्थान का एकमात्र उज्जवल मार्ग है ।