माही की गूंज, खरगोन।
गणगौर पर्व हमारे निमाड़, मालवा अंचल का मुख्य लोक पर्व है। वैसे राजस्थान गुजरात में भी मनाया जाता है लेकिन निमाड़ में इस पर्व को बच्चे बूढ़े युवा महिलाए बड़ी धूम धाम मनाते है। पारम्परिक लोक गीत गायिका श्रीमती संगीता सोहनी बमनाला ने गणगौर माता के बारे बताया कि, उन्होंने अपने मायके दवाना में बचपन से देखा है कि कैसे यह पर्व चैत्र महीने में मनाया जाता यह मुख्य रूप से देवी के अनुष्ठान का पर्व है। इस पर्व में हम गोरी शंकर के रूप की पूजा करते है। गणगौर जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है गण याने समूह, जन मानस के लिये गौर याने कि सखियां। पांच देवियाँ, अपने मायके सखियों के रूप में आती है अपने परिजनों से मिलने के लिये। इस त्यौहार पर हम देवी के पाँच रूपों की आराधना करते है।
मान्यता है कि, यह लोक इन देवियों का मायका है और ये देवियां साल भर में आठ दिनों के लिये अपने मायके आती है।ये पांचों देवियां- सईतबाई, लक्ष्मी बाई, गउरबाई, रोहेणबाई और रनुबाई है। जो ब्रम्हा, विष्णु, महेश, चंद्रमा और सूर्य की पत्नियां है। हम ईश्वरीय शक्ति की और प्रकृति की भी पूजा करते है। चन्द्रमा और सूरज ये पृथ्वी के साक्षात देव है। सूर्यदेवता तो इस जग के अधिष्ठाता देव है। इनकी भी आराधना करते है। इन देवी देवताओं का स्वागत हमारे यहाँ पर बेटी और दामाद के रूप में ही किया जाता है। इस पर्व का नाम आते ही हमारे मन में उमंगे और खुशी झलकती है। इस पर्व को लोक गीतो का पर्व भी कह सकते है। यह दस दिन का त्यौहार है। गणगौर माता का कोई भी कार्य बिना गीतों के सम्पूर्ण नहीं होता।
हमारे यहाँ यह रीति है कि बाड़ी एक ही स्थान पर बोई जाती है उस स्थान को थानक कहा जाता है। गणगौर पर्व की शुरुआत चैत्र माह के कृष्णपक्ष की एकादशी से हो जाती है। बाड़ी, याने की माता का स्थान, कोठड़ी या मढ भी कहा जाता है। उस स्थान को पवित्रता के साथ लिप पोत कर तैयार किया जाता है। एकादशी के दिन, गांव की महिलाएँ पुजारन के साथ गाते बजाते हुये होली जलने के स्थान पर जाती है और वहाँ से एक बाजूट पर होली की राख, और पाँच कंकर, जिसे खड़ा व गौर कहते है जो कि गौर माता का प्रतीक होती है, पूजा करके मढ में लाते है। होली की राख का भी अपना एक महत्व है। होली जलना भी एक हवन है, इसका भी पौराणिक महत्व है। हवन की राख विभूति का काम करती है, और उस विभूति को रखकर देवी का आवाहन किया जाता है।
बाड़ी में इस बाजूट को एक मूल स्थान पर रखकर, होली की राख में गेहूँ, दही,पानी मिलाकर उसे मुठ्या का आकार दिया जाता है जो कि पाँच बनाते है। ये पाँच देवियों का प्रतीक है। जिंन्हे गौर के पास में रखा जाता है। इस प्रकार माता का जवारे बोने की शुरुआत की जाती है। जिसे की मूँठ रखना कहा जाता है। एकादशी के दिन, गावँ के हर घर से पाँच बांस की टोकनियाँ और दो दीपक देते है जिंन्हें सरावला कहा जाता है। पंडित, बहुत ही पवित्रता के साथ इन टोकरियों में मिट्टी और सूखे उपलों का भूसा, जिसे कि केशर, कस्तूरी नाम दिया है उस मिश्रण में गेहूँ बो देते है, जो तीसरे दिन से ही जवारों के रूप में बढ़ने लग जाते है। रोज पवित्रता के साथ उनको सुबह शाम सींचते है जिसमे ज्वारे निकलते निमाड़ी बोली में गीत गाते है।
पुजारी व पुजारन को ही बाड़ी बोने का अधिकार मिलता है। कोई किसी बाहरी व्यक्ति की छाँया भी नहीं पड़नी चाहिये। केवल बाड़ी वाले, जिंन्हे कि परसाईजी कहा जाता है। वे और उनके परिवार वाले ही माता की आठ दिनों तक सेवा, आरती, नैवेद्य कर सकते है। बड़े भाग्यशाली होते है जिन्हें सेवा का अवसर प्राप्त होता है। सात दिनों तक, जब से बाड़ी बोई जाती है। रोज रात को पूरे गाँव की महिलाएँ बाड़ी में एकत्रित होकर गणगौर माता के गीत गाते है भजनों का स्वरूप भी ऐसा कि उन भजनों में पूरे जीवन का रस रहता है। देवी के नहलाने, श्रंगार कराने से लेकर, रनुबाई से हँसी मजाक करने के अंतर्गत, उनके ससुराल की बात, धणीयर राजा का नाम लेकर चुटीले हास्य गीत भी रहते है याने कि जीवन के हर रंग, सास-ससुर, ननद देवर के साथ में किस तरह से सामंजस्य बिठाकर रखना दादाजी की सिख ससुराल में कैसे रहना परिवार में कैसे एक ग्रहणी को पारस्परिक संतुलन बिठाना, सभी के दिल में किस प्रकार जगह बनानी है। ये सभी एक बेटी के प्रति जो सीख रहती है वही इन गीतों के माध्यम से दी जाती है। ननद भाभी के हंसी मजाक के गीत से लेकर सास नणंद के अनुशासन में कैसे रहा जाय। ससुराल के नियम कायदे कैसे सीखें जाय।
एक खास बात और है इन गीतों में, इस पर्व ने वर्ग भेद को मिटा दिया है। सभी वर्गों को बराबरी का दर्जा दिया है। जैसे किसान भाई से गेंहू कि सुतार भाई से प्रार्थना की जाती है कि भाई हम तुमसे विनती करते है, कि हमारी माता के लिये बाजूट बना लाना। इसी तरह से झमराळ भाई से टोपली, रंगरेज भाई से चुन्दडी, पिंजारे से रुई बत्ती, माली से फूल गजरा लाने की विनती की जाती है। कितना अच्छा समावेश है इन गीतों में सभी वर्ग की समानता का रात रात भर नाँच गाने चलते है।
सातों दिनों तक माता की बाड़ी में देर रात तक गीतों की गूँज रहती है। मेंहदी तमोल बाटी जाती। इन सात दिनों में एक दिन पाती खेलने का भी रहता है। महिलाएँ स्वांग बनाती है किसी एक दूल्हा दुल्हन का जोड़ा बनाकर सभी गाँव की महिलाएँ आम के बगीचे मे, जहाँ कि हरियाली और अमराई हो, वहाँ पर जाती है और वनस्पति, पेड़ पौधों की पूजा करती है। जिनका कि हमारे जीवन में बहुत महत्व है। अब आठवें दिन बाड़ी खोलनें से पहले घर की महिलाएँ सभी टोपलियों के जवारों को नाडा बांधते है जिसे माता का सिर गूँथना कहा जाता है। फिर पूजा-आरती, नैवेद्य-प्रसादी लेकर, सभी आम लोगों को दर्शन करने, पूजन करने के लिये बाड़ी के कपाट खोल दिए जाते हैं। जिसे की जगमाय होना कहते है।
हरी भरी बाड़ी खुलते ही माता के जयकारों से वातावरण गूँज उठता है। जवारों में सचमुच माता का ही प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। श्रद्धालु नतमस्तक हो जाते है। भरी वाड़ी की पूजा करने का बहुत महत्व है। गीत (खोलो किवाड़ी माता ऊबी सुहागन नारी दर सन की बलिहारी) जब तक पूरा गावँ पूजा नहीं कर ले, तब तक कोई माता को घर नहीं ले जाते। दोपहर बाद सभी लोग अपने अपने घर से रथ सिंगार कर गाजे बाजे के साथ वाड़ी में माता को लेने पहुंचते है। बहुत ही श्रद्धा के साथ देवी को मना कर गाते-बजाते हुये घर ले जाते है।
श्रद्धालु घर लाकर सभी परिजनों के साथ माता का स्वागत करते है। इसे लगता है कि मानों बेटी बहुत दिनों बाद ससुराल से आई हो। पूरा परिवार और सारे रिश्ते नाते के लोगों को बुलाया जाता है और एक उत्सव का रूप बन जाता है। ब्राम्हण भोजन, दान-दक्षिणा का दौर चलता है। शाम को गावँ की महिलाएँ घर घर जाकर माता के गीत गाती है। प्रसाद के रूप में तमोळ बँटता है। जिसमें ज्वार, मक्की की धाणी, चने और मुंगफली रहते हैं। जिसे माता का मेवा नाम दिया है। दूसरे दिन सुबह उठ कर स्नान के बाद परिजनों के साथ माता की पूजा आरती होती है उस दिन आमाडी की भाजी व जवार की रोटी बनाकर भोग लगाया जाता है शाम को माता की बिदाई होती है लेकिन बमनाला में सामुहिक रथ बोड़ाने की परंपरा कई वर्षो से चली आ रही यानी की माता को एक दिन और रहने के लिए मना कर लाते रात भर माता के गीत चलते है।
दूसरे दिन माता की बिदाई का होता है उस दिन बमनाला में सामुहिक पूरे गांव का भोजन भंडारे का आयोजन रखा जाता शाम को झालरिया गीतों में भी बिदाई की पीड़ा दिखती है। सखी सहेलियों के साथ रनादेवी बाग-बगीचे, घूमने जाती है। मन नहीं करता कि ससुराल जाये। लेकिन धणीयर राजा लिवाने आ गये है। गीत (आवो नि ओ म्हारी रानी रनू बाई लाल चूड़ीलो पेरावा ) जाना तो पड़ेगा। वीराजी भी रोकते है कि कल चले जाना। लेकिन दामादजी तो घोड़े पर सवार होकर आये है और आज ही ले जायेंगे। विदाई गीत भी ऐसे गाये जाते है, कि बरबस आंखों से आँसू आने लगते है। ऐसे निमाड़ी बोली में १०० से ज्यादा गीत है। भरे मन से सभी से गले लगकर गणगौर देवी अपने ससुराल के लिये विदा होती है। जल्दी ही बुलाने की उम्मीद लेकर। माता के रथ घर लाकर शगुन के तौर पर सिर पर रखकर नाचने की प्रथा है। गणगौर एक ऐसा त्यौहार है, जो जन मानस की भावनाओं से जुड़ा है।
ग्राम्य जीवन की वास्तविकताओं के दर्शन है इसमें। देवी देवताओं और धार्मिक आस्था से जुड़े ये त्यौहार जीवन की वास्तविकताओं से परिचित करवाते है। गणगौर का त्यौहार ऐसे समय में आता है जब फसल कटकर आ चुकी है। कृषक वर्ग फुरसत में है। आर्थिक रूप से भी हाथ मजबूत है। ऐसे में माहौल और खुशमिजाज हो जाता है। लोगों की धार्मिक आस्था भी मजबूत हो जाती है। दुगुने जोश खरोश से जिंदगी चलने लगती है। एक नई ऊर्जा पैदा हो जाती है। एक और खास बात धर्म के माध्यम से, मीठे मीठे गीतों के जरिये बेटियों को जीवन जीने की उचित शिक्षा मिल जाती है। वो भी बिना कुछ कहे। क्योकि बेटियां यह सब देख सुनकर अपने आप को उसी रंग में ढालने लग जाती है। हर माता पिता चाहते है कि बेटियों को अच्छा घर परिवार मिले और सुखी रहे। हर वर्ष इसी तरह माता गनगौर का इंताजार किया जाता है।