घोर परिश्रम, राजनीतिक सेवाकार्य की निरतंर लगन के चलते स्व. कन्हैयालाल वैद्य जी को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम पंक्ति के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रुप में याद किया जाता है। थांदला अंचल में जन्मे कन्हैयालाल वैद्य के जीवन का त्याग और बलिदान देश के उस संघर्ष की स्मृतियों को ताजा करता है, जिसमें देश के हजारों लाखों स्वतंत्रता सेनानियों ने हिस्सा लेकर अपना जीवन, घरबार, संपत्ति का बलिदान किया। स्वंतत्रता संग्राम सेनानी होने के साथ-साथ वैद्य जी पत्रकारिता के पितामह भी थे। जिसके चलते वे जनहितैषी पत्रकारिता के अथक कलमयोद्धा आजीवन रहे। इसके अतिरिक्त वे 1952 से 1958 तक राज्यसभा के सदस्य भी रहें हैं।
ऐसी थी वैद्य जी की पत्रकारिता
कन्हैयालाल वैद्य ने महाविद्यालय उज्जैन में अध्ययन के दौरान आध्यात्मिक पत्रिका कल्पवृक्ष से पत्रकारिता आरम्भ की थी। सन् 1928 में अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इण्डिया के झाबुआ रियासत में संवाददाता के रूप में राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकारिता में प्रवेश किया। इस तरह वह झाबुआ रियासत के पहले पत्रकार थे। उस समय का अंग्रेजी टाइप राइटर जिससे खबरें प्रेषण का काम करते वह जीवनपर्यन्त उसके साथ रहा। सन् 1936 में बम्बई के दैनिक अखण्ड भारत का प्रकाशन आरम्भ किया। उनके जेल साथी जयनारायण व्यास (राजस्थान के मुख्यमंत्री) थे। दोनों के स्वतंत्रता आंदोलन देश रियासती आन्दोलन में योगदान तथा उद्देश्यपूर्ण पत्रकारिता के कारण उस समय के लगभग पचास हजार रुपए के घाटे के कारण अखबार का प्रकाशन बन्द हो गया। प्रेस भी बिक गया था। उसके बाद उन्होंने स्वतंत्र पत्रकारिता आरम्भ की थी उनके द्वारा प्रेषित 40 से अधिक हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, उर्दू, मराठी आदि विभिन्न भाषाओं के दैनिक साप्ताहिक अखबारों में समाचार प्रकाशित होते रहे।
जाने-माने पत्रकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक द्वारा राष्ट्रीय स्तर के पत्रकार ग्रंथ ‘‘पत्रकारिता के विविध आयाम’’ में कन्हैयालाल वैद्य की पत्रकारिता को विशेष रूप से जीवन परिचय के साथ प्रकाशित किया गया है। आजादी के बाद मध्य भारत श्रमजीवि पत्रकार संघ के प्रथम अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे। उनके संबंध में तब अखबारों ने सम्पादकीय लिखी थी। मध्यप्रदेश सरकार ने सन् 2008 में कन्हैयालाल वैद्य पत्रकारिता पुरस्कार की घोषणा की है जो एक लाख एक रुपए सम्मान राशि के साथ प्रतिवर्ष एक पत्रकार को प्रदान किया जाता है।
जनता के पैरोकार रहे वैद्य
छात्र जीवन से वैद्यजी की प्रवृत्ति संघर्ष की रही, उनके पिता ने उन्हें कानून की शिक्षा के लिये जोर दिया फलस्वरूप वैद्यजी, अदालत में कानून सीखते हुए गरीबों की सेवा, सहायता करने लगे, मजिस्ट्रेटों से, रिश्वतखोर अफसरों से उन्होंने लड़ाइयां लड़ी और जनता को न्याय दिलाते रहे। किन्तु इस संघर्ष में निरंकुश सत्ता और उसके अधिकारी बाधक होने लगे तब राज्य की ज्युडीशियल की नौकरी मात्र तीन वर्ष की अवधि तक कर उसे ठोकर मार कर छोड़ दी। संघर्ष सेवा जारी रही। बाद में उन्होंने वकालात की सनद प्राप्त की और जनता की सेवा करने लगे, इसी दौरान वे समाचारपत्रों में लेख और संवाद भेजकर रियासती जनता के अभाव, दरिद्रता, असहाय तथा पीड़ित लोगों की आवाज उठाते रहे, तब निरंकुश सत्ता के वे कोप भाजन बन गये, उन पर आरोप लगाया गया कि वकालत की आड़ में जनता को बहकाते है अत: राजद्रोह का मुकदमा क्यों न चलाया जाय और उनकी सनद जब्त कर ली गयी। अब वे बिना सनद के जनता की पैरवी करने वाले बन गये।
कोई प्रलोभन नहीं खरीद सका
वैद्यजी ने अपने संस्मरण में एक जगह लिखा है ‘स्कूल जीवन से मैंने उस रास्ते को खुद होकर पकड़ा है जिस पर मुसीबत, भूख, फाकामस्ती के साथ बुराई और अन्याय के साथ लड़ने की शक्ति मिलती है। आज यदि दूसरे रास्ते पर मैं रहता तो वैभव, दिखावटी, प्रतिष्ठा, मकान, बंगले में मैं किसी लखपति से कम नहीं होता। इन्दौर राज्य की ओर से मासिक सहायता के प्रलोभन और राजाओं द्वारा बड़ी-बड़ी थैलियों के प्रलोभन लाये गये किन्तु विद्यार्थी जीवन से जिस मार्ग को ठुकराया था उस पर फिर जाने की प्रवृत्ति नहीं हुई।’ वैद्यजी आगे लिखते हैं ‘यह ठीक है कि इस मार्ग पर चलने के कारण मुझे मध्यभारत की कई रियासतों से और रेल्वे हद (सीमा) से निर्वासित होना पड़ा है और एक खानाबदोश की जिन्दगी बिताने को मजबूर होना पड़ा है। मैरे कुटुम्बिक जीवन का भी नाश होता जा रहा है मेरे बच्चों और मेरी धर्मपत्नी का स्वास्थ्य इसके प्रमाण है। एक 12 वर्ष की बच्ची तो जीवित नरककाल बनी हुई है। यह सार्वजनिक जीवन का पुरस्कार है।’
देश को स्वतंत्रता दिलाने के आंदोलन के दौरान वैद्यजी, अनेक बार जेल गये। वैद्यजी ने अपने एक लेख में लिखा है उनके संघर्षपूर्ण जीवन में उन्हें मित्रों ने सहानुभूतिपूर्वक उन्हें सहयोग प्रदान किया, कोई भी राज्य या रियासत अपने प्रचारक या समर्थक बनाने के लिये खरीदने का साहस नहीं दिखा सके है। वैद्यजी लिखते है ‘मुझे और मेरी धर्मपत्नी को अपने वैभव, ऐश-आराम के जीवन तथा घर के सुन्दर मकानों को छोड़कर जगह-जगह, मारे-मारे फिरने और भाड़े के झोपड़ों में पशुओं की भांति पड़े रहने में न दुख है न अफसोस।’
पत्रकारिता के महल के चमकीले कलश थे श्री वैद्य
अंचल की पत्रकारिता का इतिहास अथक संघर्षों और संकटों से जूझने की लंबी कहानी है। इसे स्व. वैद्य, मामा बालेश्वर दयाल सहित कई स्वनामधन्य पत्रकारों ने अपने खून-पसीने से सींचा है। अंचल में पत्रकारिता का जो बड़ा महल दिखाई दे रहा है, जिस पर जो कलश चमक रहे हैं, उसकी नींव के पत्थर और प्राण प्रतिष्ठा के शिल्पी हमारे पुरखे हैं। उनके त्याग और बलिदान ने पत्रकारिता के इस महल में सरोकार के भाव भरे, संघर्ष का जज्बा पैदा किया, मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखा खींची और जवाबदेही के मान-मूल्य स्थापित किए। जिस पत्रकारी विरासत पर हमारी आज की पीढ़ी गर्व करती है, उन्हें अपनी जड़ों से जुड़ने के लिए पुरखों की कष्ट साधना, नैतिक बल और मानसिक बुनावट से भलीभांति अवगत होना चाहिए। वैद्यजी के जीवनकाल में किए गए संघर्षों को देखते हुए संपादकाचार्य रुद्रदत्त शर्मा की लिखी यह पंक्ति हमें याद आ जाती है।
जिए जब तक लिख खबरनामे।
चल दिए हाथ में कलम थामें।
लेखक:- धर्मेंद्र पंचाल