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प्रकृति के पास हर कर्म का परिणाम है
प्रकृति के विधान में क्षमा का प्रावधान नहीं है, प्रकृति का विधान अपने अनुरूप चलता है। यह स्वयं से संचालित है, किसी अन्य के द्वारा नहीं। जो इसके विधान का पालन करता है, उसका लाभ होता है और जो इसका उल्लंघन करता है, दंड का भागीदार होता है। जैसे खेत में बीज बोया जाता है और उसके अनुरूप फसल मिलती है ठीक वैसे ही प्रकृति के खेत में कर्म का बीजारोपण होता है और भाग्य व प्रारब्ध के रूप में उसकी ही फसल उगती है।
सत्कर्मो के बीज पुण्य के रूप में पुष्पित होते हैं और दुष्कर्मो के बीज पाप के रूप में। यह अटल विधान है और ऐसा होता अवश्य है। प्रकृति में हर कर्म का परिणाम होता है। यहां पर बबूल का बीज डालकर आम की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। प्रकृति ने अपनी सृष्टि के संचालन के लिए विशेष नियम-विधान की व्यवस्था की है। जो इस विधान को जानते-समझते हैं, वे कभी भी भूल नहीं करते। आसक्तिवश, मोहवश, कामनावश और क्रोधवश किया गया कर्म हमें कर्म बंधन में जकड़ता है और इससे उपजे परिणाम का सामना करना पड़ता है।
किसी कर्म का परिणाम कब आएगा और बुरे परिणाम से कैसे निजात पाई जा सकती है, इसका भी एक विशिष्ट विधान है। जो इस विधान से परिचित होते हैं, वे किसी कारणवश हुई गलतियों से छुटकारा पाने का प्रयास करते हैं। चाकू के गलत इस्तेमाल से हाथ भी कट सकता है और यदि हाथ कट जाता है तो उसकी पीड़ा को भी ङोलना ही पड़ेगा। हाथ न कटे इसलिए चाकू का इस्तेमाल सावधानी से करना चाहिए। वैसे ही सभी कर्मो के साथ सजग और सचेष्ट रहकर ही बर्ताव करना चाहिए। फिर भी यदि त्रुटि हो जाती है, तो प्रकृति के दंड से बचने के बजाय स्वेच्छा से दंड को वरण कर लेना चाहिए। त्रुटियों के लिए किए गए स्वेच्छा से दंड वरण करने को तपस्या कहा जाता है। भोग और तप ही ऐसे दो माध्यम हैं, जिनसे प्रारब्ध को काटा या कम किया जाता है। किसी क्षण में किए गए एक छाटे से दुष्कर्म का परिणाम भी कभी-कभी भीषण परिणाम लेकर आता है। इसलिए जीवन में सदा सत्कर्मो के बीज डालना चाहिए, ताकि उनसे पुण्य के फल उगें और उनसे जीवन सुखी-संपन्न हो जाए। पता नहीं किस दुष्कर्म का परिणाम कितना घातक होगा और हमें उसकी कितनी कीमत चुकानी पड़ेगी। इसलिए प्रकृति के दंड-विधान से बचने के लिए जीवन में सतत सत्कर्म करते रहना चाहिए।
लेखक - प्रफुल्ल सिंह
लखनऊ, उत्तर प्रदेश