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प्रकृति की सहनशीलता अब खत्म होने को...
Report By: पाठक लेखन 23, Apr 2021 3 years ago

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     प्रकृति, जिसके जितने करीब जाओ उतनी ही अपनी ओर खींचने को आतुर। बाहरी और आंतरिक सौंदर्य से लबालब। अद्भुत सम्मोहन शक्ति की स्वामिनी। इतनी मोहक कि एक रूखा व्यक्ति भी दो पल के लिए ठिठक जाता है। विभिन्न रूप और हर रूप का अपना अलग दैवीय सौंदर्य। इसके सौंदर्य का रसपान एक प्रकृति प्रेमी ही कर सकता है। वही महसूस कर सकता है इसकी विभीषिक में, कांटों में और संघर्षों में भी इसका अनूठा सौंदर्य। 

     सघन अरण्य की ओर रुख करें तो अपने बाहुपाश में बांध लेती है प्रकृति। अनुपम सौंदर्य, लंबे घने तरुवरों का सागर, नाना रूप। कुछ नन्हें तो कुछ आसमां को चूमते। सबके अलग रंग, सबकी अलग पत्तियां। स्वयं के रूप से संतुष्ट। न ईर्ष्या न द्वेष, जो मिला उसमें खुश, स्वयं में मस्त, झूमते गाते जीवन को सरलता से जीते नजर आते हैं। इनसे लिपटी खूबसूरत लताएं अपने प्रिय से प्रेम प्रदर्शित करती हुईं, थोड़ी-सी इठलाती हुई मनमोहक। नयन-आकर्षक जंगली फूलों से सज्जित, एक अलग खुशबू से महकता हुआ सुरभित अरण्य। इसकी गोद में विचरते सुंदर जीव-जंतु। रंग-बिरंगे आकर्षक पक्षियों के कलरव से गूंजता हुआ सन्नाटा अद्भुत। 

     रेगिस्तान, रेत का अनूठा सौंदर्य। सूर्योदय-सूर्यास्त के समय स्वर्णथाल, तो दुपहरी में रजतथाल। रेत के चमचमाते टीले। टीलों में पवन की चंचलता प्रकट करती हुई नक्काशी-सी लहरदार लकीरें। मानो रात राधा का इंतजार करते कान्हा ने बैठे-बैठे लकीरें खींच दी हों। उत्कट जिजीविषा को दर्शाती कंटीली हरीतिमा। थोड़े में संतुष्ट हो खुश रहने की कला सिखाते रंगीन फूलों से युक्त कैक्टस। संघर्षों में जीना सिखाता टेढ़ा-मेढ़ा सा फिर भी खूबसूरत ये ऊंट। कितना सौन्दर्य, प्रकृति ने किसी का हाथ खाली नहीं रखा, सबको कुछ न कुछ विशिष्टता से अलंकृत किया है।

     पहाड़ों की ओर जाओ तो हीरक ताज धारण किए हुए पर्वतराज का चित्ताकर्षक सौंदर्य स्तब्ध कर देता है हमें। सर्पिल सड़कों से गुजरो, तो ये कहती हैं - देखो तुम्हारी जिंदगी की राह भी तो कुछ ऐसी ही हैं न। हर चंद कदमों के बाद एक नया मोड़। कभी राहत का मोड़ तो कभी संघर्षों का मोड़। ये मोड़ जरूरी भी तो हैं लक्ष्य तक पहुंचने के लिए। उन्नति की चढ़ाई को आसान जो करते हैं। पानी का ऊंचाई से गिर, हार नहीं मान, पहाड़ों और पत्थरों से ठोकर खाकर अप्रतिम झरने में परिवर्तित होना हमें सिखा जाता है। यही कि संघर्षों से हार न मान, गिरने का शौक न मना हमें नई राह पर चल स्वाभिमान से अपने व्यक्तित्व को नए सौंदर्य में ढाल लेना चाहिए। पहाड़ों के कोख से निकल बाबुल के दामन में हरियाली बिछाती हुई ये नदियां निकल पड़ती हैं नए परिवेश को हरीतिमा देने। एक नई संस्कृति को जन्म देने, सृजनशील नारी की तरह। 

     कितना सौंदर्य बिखरा पड़ा है हर दिशा में। संपन्नता में भी सौंदर्य, तो विपन्नता में भी सौंदर्य, सुरुपता में भी सौंदर्य तो कुरूपता में भी सौंदर्य। विश्वास नहीं होता कि हमारी धरती कभी सूर्य की तरह धधकती थी। करोड़ों वर्षों की तपस्या के बाद धरती ने यह रूप पाया है। शानदार वृक्ष, खूबसूरत पहाड़, शांत-सौम्य सागर, उछलते खेलते नटखट झरने और उत्तरीय सी लिपटी नदियां। 

     जब मानव आया धरा पर, इन वृक्षों ने पनाह दी, अपने फलों से उनकी क्षुधा तृप्त की। जीवित रहने के लिए प्राणवायु उपहार में दिया। नदियों ने उनकी प्यास मिटाई। सबने नवागत का दिल खोल कर स्वागत किया। मानव ने भी उन्हें देवी-देवताओं का दर्जा दिया। फिर हुआ यह कि मानव बुद्धिमान हो गया। बुद्धिमान होते ही मूर्ख हो गया। सोचने लगा कि यह सब बस हमारा है। वह और-और की चाह करने लगा। लोभ की पराकाष्ठा, विकास की उत्कट चाह में अपने जीवनदायक का विनाश करने लगा। भूल गया कि ये हैं तभी उनका अस्तित्व है। लालसा थम नहीं रही, मूक साथी मौन हो बलिदान दे रहे हैं। पर प्रकृति अब नहीं सह पा रही है। अब ये प्रतिकार करने लगी है। मानव अब भी न समझा तो उसे इसका भयानक रूप देखने के लिए तैयार रहना होगा।

लेखक - प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

लखनऊ, उत्तर प्रदेश


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