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सेवा व त्याग की सप्राण देवियों का दिवस आज
Report By: पाठक लेखन 12, May 2020 4 years ago

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 अंतरराष्ट्रीय नर्सेस दिवस पर विशेष 

कोरोना वायरस की जंग में सेवाओं की मिसाल कायम करने वाली करुणा की श्वेत देवियों को प्रणाम

सामान्य दिन हो या आपात स्थिति , बीमारी सामान्य हो या गंभीर या फिर कोरोना वायरस जैसी वैश्विक महामारी सभी में सेवा का जज्बा एक समान। जी हां हम बात कर रहे हैं चिकित्सालयों में सफेद वस्त्रों में अपनी जिम्मेदारी व मरीज की सेवा में तल्लीन नर्स यानी सिस्टर की। नर्स या सिस्टर शब्द सुनते ही हमारे आखों के सामने साफ सफेद लिबास में रोगियों की सेवा करती नारी की तस्वीर उभर आती है। किसी भी अपरिचित बीमार इंसान की जी-जान से सेवा करना नर्स का कर्तव्य होता है लेकिन, यह विडंबना ही कही जाएगी कि चिकित्सालयों में मौत से बच निकलने वाले व उनके सगे संबंधी जीवनदान के लिए डॉक्टरों को ही सराहते व श्रेय देते हैं तब अपनी अथक सेवा देने वाली इन करुणा की देवियों को भुला दिया जाता है। इसके अलावा यह भी विडम्बना नहीं तो क्या है कि, सेवा व त्याग की इन सप्राण देवियों को कभी सम्मानजनक दृष्टि से स्वीकारा ही नहीं। मंचों पर इन देवियों का अभिनंदन करने वाले सम्माननीय समाजसेवी, नेता, अधिकारी या धर्म के ठेकेदारों ने अपनी पुत्री या पत्नी को नर्स बनाने की पहल की हो , ऐसा कभी ना हुआ ना सुना। 

इतिहास पुराना है

करुणा की इन देवियों की सेवा का व्यवसाय का इतिहास बहुत पुराना है , शायद ,,धाय,, नर्स का प्राथमिक स्वरूप रहा है। पुराण,  कथाओं, गीतों व पुरातत्ववेत्ताओं के अध्ययनों में बीमारों की सेवा करने वालों के विषय में ज्ञात होता है कि मध्यकाल के प्रारम्भ में कई पुरुषों ने सेनाओं में नर्सो की भूमिका निभाई और इसी दौरान पश्चिमी संमाज में पादरी व नन ( विदुषी) परिचारिका की भूमिका निभाते थे। मध्यकाल के उत्तरार्द्ध में सेना में कार्यरत परिचारक युद्ध बंद होने पर बीमारों की तीमारदारी किया करते थे। जैमसन व सेवाल नामक विद्वानों ने पंद्रहवीं से अठारहवीं के शताब्दी के काल को नर्सिंग इतिहास का काला अध्याय निरूपित किया है। इस कॉल में नर्सो को न केवल बहुत ही कम पारिश्रमिक दिया जाता था बल्कि उनके साथ दुर्व्यवहार भी किया जाता था। चरित्र या योग्यता का कोई महत्व नहीं था। अधिक काम व दुर्व्यवहार के कारण संभ्रांत महिलाएं इस पेशे को नही अपनाती थी। इस काल मे नर्सो को शराबी, हृदयहीन व चरित्रहीन माना जाता था। इसके बाद इटली के फ्लोरेंस शहर में 12 मई 1820 को जन्मी फ्लोरेंस नाइटिंगल ने इस पेशे को पुनः गरिमा प्रदान की । अपने माता-पिता की अनिच्छा व सामाजिक आलोचना के बावजूद, करुणा की देवी ने इस विवादास्पद व हेय माने जाने वाले पेशे में प्रवेश किया।

दूसरों के लिए जीवन (लाइफ फ़ॉर अदर्स) को मूलमंत्र मानने वाली नाइटिंगल को रोम व इंग्लैंड जाने का अवसर दिया गया। टाइम्स नामक अखबार ने नाइटिंगल की निःस्वार्थ सेवा के विस्तृत समाचार प्रकाशित किए। लगातार 20 घण्टे सेवा करने वाली यह महान महिला रात में दीपक लेकर वार्ड में प्रत्येक रोगी की स्थिति का निरीक्षण  करती थी। उनकी निःस्वार्थ सेवा से प्रभावित होकर अंगरेजो ने उनकी इक्छा के अनुरूप संभ्रांत घरानों की महिलाओं को नर्सिंग शिक्षा प्रदान करने के लिए स्कूल स्थापित किया। मानवसेवा की भावना को नवचेतना प्रदान करने वाली करुणामूर्ति नाइटिंगल को कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। 13 अगस्त 1910 को उन्होंने दुनिया से विदा ली।

सेवा की अपेक्षा के बावजूद उपेक्षा

हालांकि फ्लोरेंस नाइटिंगल ने इस पेशे को गरिमा प्रदान की परन्तु भारत मे आज भी नर्सो से सेवा की अत्यधिक अपेक्षा करने वाले समाज ने उनकी उपेक्षा में कोई कसर नही छोड़ी। रात दिन सेवा करने वाली परिचारिकाओं के साथ आये दिन रोगियों के परिजन, पेरामेडिकल स्टाफ के लोग तथा कभी कभी साथी डॉक्टर भी दुर्व्यवहार करते है। सरकारी अस्पतालों में अक्सर ऐसा होता है, क्योंकि सरकारी अव्यवस्थाओं(स्टाफ, उपकरण व दवाओं की कमी) से होने वाली सारी समस्याओं को नर्सो के मत्थे मड़ दिया जाता है। यहां तक कि इन अभावों को जानने वाले डॉक्टर तक कई बार अपनी झुंझलाहट नर्सो पर उतारते है। इसके अलावा कभी कभी नर्सो को युवा डॉक्टरों की छेड़छाड़ का भी सामना करना पड़ता है। खासतौर पर मेडिकल कालेज अस्पतालों से जुड़े युवा डॉक्टरों के व्यवहार को देखते हुए एक शोधार्थी ने अपने शोध पत्र में लिखा था कि, नर्सो को स्टेथिस्कोप लटकाए आधुनिक रोमियो से बचना चाहिए। वैसे भी समाज नर्सो के प्रति सम्मानजनक रुख रखता हो ऐसी बात नही है। यही वजह है कि, अपवादों को छोड़ दिया जाए  तो विवशतावश ही इस प्रोफेशन को विकल्प के रूप में चुना जाता है,  सामान्यतः दक्षिण भारतीय(मुख्यतः केरल) एवं आदिवासी बहुल क्षेत्रो की युवतियाँ ही इस पेशे को चुनते हैं।

सेवा के एवज में पारिश्रमिक भी कम

विभिन्न सरकारी एवं गैर सरकारी अस्पतालों में कार्यरत नर्सो की प्रायः दो श्रेणियां है। एक तो वे जो प्रशिक्षित तथा वेतनभोगी है, उन्हें स्टाफ नर्स कहा जाता है। दूसरी श्रेणी में शिष्यवृत्ति, पर आश्रित प्रशिक्षण लेने वाली नर्स आती है, जिन्हें जी.एन. व बी.एस. सी. नर्स कहा जाता है। सरकारी अस्पतालों में कार्यरत स्टाफ नर्स को सेवा के बदले उचित वेतन भी नहीं मिलता है। आवास सुविधा किसी-किसी को ही मिल पाती है। वैसे ड्यूटी 8 घंटे की होती है, परंतु स्टाफ की कमी के कारण अधिक समय तक अधिक कार्य करते रहना पड़ता है। प्रायवेट अस्पतालों में स्टाफ नर्स को प्रायः रहवास के लिये एक कमरा उपलब्ध होता है। दस से बारह घंटो की कड़ी ड्यूटी करना होती है। प्रशिक्षणार्थी नर्सो को साढे तीन से चार वर्ष तक प्रशिक्षण लेना होता है। इस दौरान उन्हें रहवास की सुविधा के साथ-साथ  शिष्यवृत्ति दी जाती है। प्रतिदिन 10 से 12 घण्टे प्रशिक्षण व ड्यूटी के तहत बिताने होते है। गैर सरकारी अस्पतालों में प्रशिक्षित नर्सो को प्रशिक्षण के बाद पांच वर्षों तक उसी अस्पताल में कार्य करने का अनुबंध स्वीकारना होता है। जो नर्स इस अनुबंध से मुक्त होना चाहती है उन्हें अस्पताल प्रशासन को राशि देना होती है। मिशन अस्पताल में प्रशिक्षण प्राप्त करने वाली नर्सो को प्रशिक्षण काल के दौरान निर्धारित रुपये प्रति माह जमा कराना होता है। प्रशिक्षण के बाद उन्हें एक वर्ष कार्य करने की बाध्यता रहती है। मामूली विभिन्नताओं के अलावा सरकारी व गैर सरकारी अस्पतालों में कार्यरत नर्सो की समस्याएं समान ही है। नर्सो की सबसे प्रमुख समस्या अपर्याप्त वेतन की है। शहरी महंगाई, महंगा मकान भाड़ा एवं आवागमन की सुविधा के अभाव में वेतन कम पड़ता है। निर्धारित समय से अधिक समय तक एवं अत्यधिक अतिरिक्त कार्य के बावजूद ओवर टाइम जैसी कोई सुविधा उन्हें नही दी जाती है। अनिवार्य व आकस्मिक सेवा के नाम पर किसी भी समय काम करवाने के बावजूद किसी प्रकार का अतिरिक्त भत्ता नही दिया जाता है। जबकि नर्से अन्य विभागों के कर्मचारियों की तरह न तो कार्य मे विलंब करती है, न ही काम चोरी। उन्हें तो निरंतर काम व भागमभाग करते रहना पड़ता है। यदि स्टाफ की कमी की दिशा में कदम उठाए जाए तथा रहवास की सुविधा उपलब्ध हो जाय तो उन्हें कुछ राहत मिल सकती है।

दुर्व्यवहार व असुरक्षा

नर्सो की दूसरी समस्या दुर्व्यवहार व असुरक्षा की है। अस्पताल में विभिन्न वस्तुओं, उपकरणों तथा विभिन्न दवाइयों की कमी के कारण नर्सो को अपनी कर्तव्य पूर्ति में तो परेशानियां होती ही है साथ ही रोगी के रिश्तेदारों की नाराजगी व दुर्व्यवहार का भी सामना करना पड़ता है। सरकारी अस्पतालों में ऐसा अक्सर होता है। कभी-कभी पुलिस भी बुलाना पड़ती है। गैर सरकारी अस्पतालों में उचित व आवश्यक व्यवस्था के अभाव में असामाजिक तत्व बिनावजह अस्पताल में घूमते रहते है। रात में ड्यूटी देने वाली नर्से अपने आपको असुरक्षित महसूस करती है।

नर्सो के प्रति अधिसंख्य जनता का असंतोषजनक रवैया नर्सो के लिए खेद का विषय है। नर्सो का कहना है कि जनता इस पेशे को हेय मानती है और कई बार लोग उनकी आर्थिक विवशता का गलत अर्थ लगाने लगते है। उनके अनुसार एकाध प्रतिशत पथभ्रष्ट नर्सो के कारण समूचे नर्स-समुदाय को दोषी नही ठहराया जाना चाहिए। हरेक पेशे  व वर्ग तक मे ऐसे अवांछित आचरण वाले लोग होते है। जनता के इस रवैए के कारण ही चाहते हुए भी बहोत ही कम संख्या में स्थानीय युवतियां इस पेशे को अपना पाती है। साथ ही नर्सो को विवाह में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। विवाह के बाद बड़ी संख्या में पति उनसे व्यवसाय छुड़वा देते है। हालांकि व्यवसाय छोड़ने या छुड़ाने का मुख्य कारण विवाहोपरांत बड़ी हुई पारिवारिक जिम्मेदारियां होती है।

ग्रामीण क्षेत्रो में कार्यरत नर्सो की अपनी समस्याएं है। उन्हें स्वास्थ विभाग के विभिन्न कार्यो के लिये गांव-गांव व घर-घर जाना होता है। उनका कार्य और भी ज्यादा तकलीफो वाला होता है। जहां वे पदस्थ होती है वहां तो उनके अफसर होते ही है, परन्तु कार्यक्षेत्र के विभिन्न स्थानों में संम्बंन्धित व्यक्तियों के निर्देश में उन्हें कार्य करना पड़ता है। इस तरह उनके साथ शोषण एवम दुर्व्यवहार का दायरा भी बढ़ जाता है। साथ ही बीमारियों के प्रति ग्रामीण अज्ञान व रूढ़ियों के कारण लोगो का उचित सहयोग भी नही मिल पाता है। सरकार भी उनके मैदानी कार्यो का पुरस्कार जिला अधिकारियों व डॉक्टरो को देती है। उनके कार्य को देखते हुए उनका वेतन अपर्याप्त तो होता ही है।

जोखिमभरा है कार्य

नर्सो के बारे में यह आम शिकायत है कि वे रोगी के रिश्तेदारों से दुर्व्यवहार करती है तथा उनसे पैसे या उपहार की अपेक्षा करती है। इस विषय मे उनका कहना है कि वार्ड की विभिन्न जिम्मेदारियों, काम की अधिकता स्टाफ की कमी तथा दवाइयों व उपकरणों की कमी के कारण उन्हें अक्सर अपनी कर्तव्य पूर्ति में विलंब हो जाता है, उसके कारण रोगी के रिश्तेदारों को अक्सर ऐसी गलतफहमी हो जाती है, जबकि उनकी ऐसी कोई मंशा नही होती है। यही वजह है कि रोगी की इच्छा से दिए हुए उपहार को भी कई नर्से नही स्वीकारती है। 

तमाम विडंबनाओं के बावजूद नर्सो की सेवा को मद्देनजर रखते हुए उनकी समस्याओं का निराकरण किया जाना चाहिए। मल, मूत्र और मवाद के वातावरण में तथा संक्रामक रोगों के बीच रोगी की सेवा करना न केवल जोखिमभरा, अपितु घातक भी होता है। क्या इन तथ्यों पर कभी गंभीरता से सोचा गया है? कदाचित ऐसी सेवा प्रियजन भी नही कर पाते है, जिस पर भी उनकी उपेक्षा आखिर हमारी किसी महान संस्कृति की प्रतीक है? समाज मे उन्हें सम्मानजनक स्थान प्राप्त हो सके, ऐसे सार्थक प्रयास किये जाने चाहिए, ताकि सिस्टर शब्द की गरिमा, पवित्रता एवं प्रतिष्ठा की स्थापना हो सके।

पहली भारतीय महिला नर्स

सन 1845 में बने बम्बई के जे जे अस्पताल में बीमारों की सेवा का पूरा जिम्मा मेडिकल कॉलेजों के छात्रों पर हुआ करता था। परंतु रात में  मरीजों की देखभाल करने वहां कोई नही रहता था। 1880 में ऑल सेंट्स कम्युनिटी की नर्सो ने अस्पताल के योरपीय वार्डो के मरीजों की देखभाल करनी शुरू की। भारतीयों की सेवाएं आयाएँ किया करती थी। कुछ समय बाद इंग्लैंड से कुछ नर्से आई। आवश्यकता व परिस्थितियों को देखते हुए भारतीय नर्सो को प्रशिक्षण दिया जाने लगा। नर्सो के  प्रशिक्षण के लिए पहला कदम उठाते हुए भावनगर के ठाकोर साहब ने 1889 में,  लेडी रे फंड फॉर नर्सेस, के नाम से एक लाख रुपये जे जे अस्पताल को भेंट किए। नर्सिंग का पहला प्रशिक्षण लेने वाली प्रथम भारतीय थीं, काशीबाई गणपत जिन्हें सन 

1889 में ठाणे नंगर पालिका ने प्रशिक्षण के लिए बम्बई भेजा था। नर्सिंग का प्रशिक्षण देने की शुरुआत, आल सेंट्स कम्युनिटी, की नर्सो ने तीन अंगरेज नर्सो के साथ की थी। धीरे धीरे इस दिशा में प्रगति हुई और दूसरे अस्पतालों में भी नर्सो के प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाने लगी। 1903 तक जे जे अस्पताल के सभी वार्डो में प्रशिक्षित नर्सेस मरीजो की सेवा करने लगी। सन 1910 में ,, बॉम्बे प्रेसिडेंसी नर्सिंग एसोसिएशन,, की स्थापना हुई। तदन्तर जे जे अस्पताल में देश का पहला नर्सिंग कालेज खोला गया।

नर्सिंग शिक्षा की प्रेरणास्रोत फ्लोरेंस नाइटिंगल 

नर्सिंग की नवचेतना व नवजीवन प्रदान करने वाली फ्लोरेंस नाइटिंगल का जन्म 12 मई 1820 को इटली के फ्लोरेंस शहर में हुआ था।  अस्पतालों में नर्सिंग की अव्यवस्थाओं  से नाखुश जोकर उन्होंने नर्स बनने की ठान ली। उन दिनों नर्सो के प्रति जनभावना आदरहीन थी। इस कारण नाइटिंगल के माता पिता  उन्हें इस क्षेत्र में नही जाने देना चाहते थे। सम्पन्न परिवार में जन्मी फ्लोरेंस ने परिवार के विरोध के बावजूद निकट के कस्बे में नर्सिंग की शिक्षा ली। 1847 में उन्हें रोम जाकर विदुपियो( कम्युनिटी आव नन्स)  के समुदाय का अध्ययन करने का अवसर मिला। इजिप्ट, ग्रीस, बर्लिन व अंततः जर्मनी के कैसर वर्थ में नर्सिंग की शिक्षा लेने का अवसर उन्हें मिला।

34 वर्ष की आयु में उन्होंने प्रसिद्धि के क्षेत्र में प्रवेश किया। इंग्लैंड, फ्रांस और टर्की का रूस के साथ युद्ध चल रहा था। इस क्रीमिया युद्ध मे घायल सैनिक फौजी अस्पताल की अव्यवस्थाओं के बीच मृत्यु का इंतजार कर रहे थे। इन अव्यवस्थाओं के विषय मे अखबारों में काफी छपा तो युद्ध सचिव हर्बर्ट ने नर्सो के एक दल को चुनने और उनका नेतृत्व करने की जिम्मेदारी नाइटिंगल को सौंपी।  नाइटिंगल ने उस फौजी अस्पताल का वर्णन करते हुए लिखा,,, अस्पताल के नीचे गंदी नालियां थी जहाँ रोगी पड़े रहते थे। वार्डो में चूहे और अन्य जीव घूमा करते थे। सब तरफ गंदगी ही गंदगी थी।अपने साथ आई 38 नर्सो एवं सिपाहियों की पत्नियों के सहयोग से नाइटिंगल ने वहां का वातावरण ही बदल दिया। एक सिपाही के अनुसार अस्पताल एक पवित्र चर्च सा हो गया।

अथक सेवाओ के कारण नाइटिंगल सारे डेढ़ में चर्चा का विषय हो गई। सारा देश उनके स्वागत को उत्सुक था। उन्हें कई खिताब दिए गए। उनकी हार्दिक इच्छा के सम्मान में  सेंट टामस अस्पताल में नर्सो के प्रशिक्षण के लिए पहला स्कूल बनाया गया। 1907 में उन्हें ,, आर्डर आव मेरिट,, का खिताब दिया गया। 13 अगस्त 1910 को नर्सिंग शिक्षा की प्रेरणास्रोत संवेदना की मूर्ति नाइटिंगल का देहावसान हो गया । दुनिया को अलविदा कहने के बाद मरीजो की सेवा के क्षेत्र में उन्होंने जो कार्य नर्सिंग के क्षेत्र में किए है वे सदैव बने रहेंगे।

                          पाठक लेखन 
                निशिकांत मंडलोई इंदौर(म.प्र.)  


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