जग संस्कृति का प्रतीक है छष्ठी पूजा
बिहार के लोक जीवन में कार्तिक माह में दीपावली के बाद आने वाली छठ तिथि को षष्ठी पर्व मनाया जाता है। छठ पर्व में सूर्य की पूजा दो बार की जाती है। एक डूबते सूर्य की और उसके बाद उगते सूर्य की। यह पर्व उस कहावत को भी झुठलाता है कि उगते सूर्य की सभी पूजा करते हैं और डूबते सूर्य की कोई पूजा नहीं करता। अर्थात मनुष्य में भी जिसके भाग्य बुलंदी पर होते हैं उसका सम्मान सभी करते हैं लेकिन, जिसके भाग्य गर्दिश में होते हैं उसकी ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखता।
यह आंचलिक पर्व देश व प्रदेश की सीमा में आबद्ध नहीं है। बिहार व उत्तर प्रदेश के लोग जहाँ भी गए, अपने साथ लोक परम्परा के इस पर्व को साथ ले गए। मुंबई के समुद्र तट पर छठ के दिन लगभग 25 लाख लोगों का हुजूम उमड़ता है तो गिरमिटिया मजदूर के रूप में विदेश गए बिहारियो के वंशज मारीशस, फिजी, दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका के कैरेबियन देश त्रिनिदाद, टोबैगो, सूरीनाम में भी अपने इस पर्व को भूले नहीं हैं।
बिहार के लोक जीवन में महीनों पूर्व से जिस व्रत की तैयारी काफी शुद्धता तथा पवित्रता के साथ की जाने लगती है और जिसे चार दिनों की तपस्या से सश्रद्धा संपन्न किया जाता है वह है छठ व्रत। प्रादेशिकता की सीमा में यह पर्व लोक पर्व के रूप में जाना जाता है। इसमें सृष्टि के उत्पादक आदि देव भगवान दिवाकर की उपासना और आराधना की जाती है। बिहार के अलावा उत्तरप्रदेश, बंगाल और अन्य प्रदेशों के साथ ही मध्यप्रदेश में भी यह बड़ी धूमधाम व भक्ति भाव से मनाया जाता है।
जीवन को परिभाषित करता है छठ पर्व
छठ पूजा दरअसल प्रकृति और मनुष्य जीवन के बीच सूर्य और जल की महत्ता को प्रतिपादित करती है। यह पूजा हमें सिखाती है कि सूर्य और जीवन में कितनी निकटता है। छठ पूजा में सूर्य को जल से अर्घ्य देना यानी हम हमारे अंदर मौजूद किरणों को अर्ध्य देते हैं। जल हमें यह शिक्षा देता है कि वह जिस तरह अपने मार्ग में आने वाली रुकावटों को अपना मार्ग बदल कर दूर करता है उसी प्रकार हमें भी जीवन में अपना मार्ग बनाना चाहिए अर्थात जीवन में बाधाओं से किस प्रकार बचा जा सकता है। क्योंकि इस संसार में हम जितना पानी की तरह नरम और विनम्र रहेंगे हमारा जीवन उतना ही सफल और सार्थक होगा। सूर्य और जल प्रकृति का पोषण करते हुए हमारे आसपास के वातावरण व पर्यावरण को भी हमारे जीवन के अनुकूल बनाने में मददगार हैं। छठ पूजा में सूर्य और जल का महत्व ही मानव जीवन को प्रभावित करने का संकेत है। जब हम सूर्य को अर्घ्य देते हैं तो उस समय हम सूर्य के साथ ही अपने अंदर मौजूद ज्योति अर्थात किरणो को भी अर्घ्य अर्पित कर रहे होते हैं। छठ पूजा में उगते और अस्त होते सूर्य की पूजा हमें जीवन में भी किसी के भाग्य उदय और अस्त होने के प्रति समान रूप से व्यवहार करने का संदेश देती है।
वर्ष में दो बार मनाते हैं
इस व्रत को बिहार में वर्ष में दो बार मनाया जाता है। देश के विभिन्न भागों में बसे बिहार निवासी अपनी जन्म भूमि लौटने का प्रयास करते हैं। वर्ष में एक बार यह व्रत चैत्र माह की शुक्ल पक्ष छठ को किया जाता है जिसे चैती छठ कहते हैं। दूसरी बार यह कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की छठ को किया जाता है। इसे कतकी छठ कहते हैं। लोक जीवन मे कतकी
छठ को अधिक महत्व दिया जाता है। ऐसा इसलिए कि कार्तिक मास पुण्य का मास माना जाता है। दूसरा तर्क यह है कि चूँकि कार्तिक माह से शरद ऋतु प्रारम्भ होती है इसलिए इस माह में उपवास रखने में कष्ट कम होता है। इसलिए कतकी छठ करने वालों की संख्या
अधिक होती है। छठ व्रत सूर्य छष्ठी के साथ ही कहीं कहीं डाला छठ के नाम से भी मनाया जाता है। हिन्दू समाज का सांस्कृतिक व्रत छठ मुख्यतः महिलाओं द्वारा किया जाता है लेकिन कुछ पुरुष भी इसे करते हैं।
बिहार के मुख्य पूजा स्थल
इस पर्व को सूर्य मन्दिरों के निकट या सूर्य कुंडों में भी मनाते हैं। बिहार के औरंगाबाद जिले में स्थित देव नामक स्थान के प्राचीन सूर्य मन्दिर के पास हर वर्ष लाखों श्रद्धालु जुटते हैं और सूर्य कुंड में डुबकी लगाकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं। राजगीर के निकट बड़गांव में सूर्य मन्दिर के पास भी व्रती जुटते हैं। पटना जिले के उलार व पंडारक स्थित सूर्य मन्दिर, जहानाबाद जिले के अरवल के समीप मधुस्रवा स्थित सूर्य मन्दिर विशेष प्रसिध्द हैं जहाँ श्रद्धालु पूजा करते हैं।
चार दिन की उपासना
छठ ही एकमात्र ऐसा व्रत है जिसमें पहले अस्त होते और बाद में उगते सूर्य की उपासना की जाती है। व्रत प्रारम्भ होकर अनुष्ठान समाप्ति तक रात दिन छठ व्रत से सम्बंधित गीत होते है। चतुर्थी को व्रती स्नान कर पूजा करते हैं और तब अत्यंत नियम पूर्वक शुद्ध भोजन बनाकर केवल दिन में भोजन करते हैं।इसे बिहार अंचल में,,नहा खाय,, या नहाय खाय भी कहा जाता है। इस विधि के बाद से यानी नहाय खाय के दिन से ही व्रत का प्रारम्भ माना जाता है। उस दिन भोजन में सिर्फ अरवा चावल या भात, चने की दाल और कद्दू की सादी छौन्की हुई तरकारी ग्रहण की जाती है। पंचमी को दिन भर उपवास रख कर शाम को स्नान कर पूजा करते हैं और तब खीर और रोटी खाते हैं। इसे खरना कहते हैं। इसे चन्द्रमा देखने के बाद ही किया जाता है। छष्ठी को निराहार रह कर शाम को नदी, तालाब अथवा कुंड के किनारे व्रती सूर्यास्त के समय विविध पकवान, फल, फूल, पान सुपारी, रोली, अक्षत, दूध इत्यादि पूजन सामग्री कच्चे बांस के बने नए सूपों में सजाकर अस्ताचल के सूरज की ओर मुंह करके अर्घ्य देते हैं और घर लौट आते हैं। अर्घ्य देने के समय व्रती अपने परिवार की खुशहाली की कामना भगवान सूर्य से करता है। सप्तमी को प्रात: फिर षष्ठी की सन्ध्या की ही तरह पूर्ववत उन्हीं निश्चित स्थानों पर पानी के किनारे खड़े होकर उदीयमान सूर्य को अर्घ्य देकर व्रत के अनुष्ठान की समाप्ति होती है।
छठ व्रत करने के तौर तरीकों में बिहार की स्थानीय किन्तु विशिष्ट संस्कृति को स्पष्ट रूप से देखा व अनुभव किया जा सकता है। वहाँ की संस्कृति के लोक गीत, व्यक्तिगत आस्थाएं, फल फूल, वेशभूषा व खान पान का अदभुत सामन्जस्य दिखाई देता है। पारम्परिक वेशभूषा में सज धज कर समाज का प्रत्येक वर्ग बिना किसी भेदभाव के एक साथ घाट यानी पूजा स्थल पर एकत्र होता है।
छठ के दिन शाम को महिलाएं फल फूल, पकवान व दिपक जलाकर डाला तैयार करती हैं। घर का पुरुष सदस्य डाला सिर पर उठाकर घाट की तरफ चल देता है। डाला यानी दौरा(उदरा) सिर पर उठाकर ले जाने के लिए होड़ सी लगती है। इसके पीछे महिलाएं लोक गीत गाती चलती हैं।
कांच ही बांस के बहन्गिया,
बहन्गी लचकत जाय। बाट में पूछेला बटोहिया,।बहन्गीब केकर जाय।
तू आन्हर हवे रे बटोहिया,
बहन्गी सूरज के जाय।
छठ पूजा को श्र्ंगारित करते हैं लोक गीत
ऐसा माना जाता है कि, लोक परम्परा के पर्व के दौरान लोक गीतों का अपना महत्व होता है । इनका समावेश जब तक ना हो तो उस पर्व में आनन्द ही नहीं आता। छठ पर्व भी लोक गीतों की एक समृद्ध परम्परा रही है। इनके बगैर छठ पर्व की उमंगता और उल्लासिता अधूरी ही लगती है। इस पर्व पर पारम्परिक लोक धुन पर जो लोक गीत गाए जाते हैं उनकी बानगी कुछ इस प्रकार है...
सोना सटकोनिया हो दीनानाथ
डोमिन बेटी सूप लेले खाड़ छैई, उग हो सुरूज देव भईल अरग के बेर
केरवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुगा मेड़राय
आदि ऐसे कई गीत हैं जो महिलाएं समूह में घर पर और घाट पर गस्ती हैं। पहले तो नहीं लेकिन धीरे धीरे इन लोक गीतों की महत्ता को प्रसिध्द गायक व गायिकाओ ने भी अपने स्वर प्रदान किए। अब तो इन गीतों के कैसेट व सीडी भी उपलब्ध हैं। इनमें अनुराधा पोडवाल, चंदन तिवारी, कल्पना पटवारी आदि प्रमुख हैं।
यह भी परम्परा है
इस पर्व के साथ एक परम्परा यह भी जुड़ी है की यदि किसी के लिए मनोती मान दी गई हो तो वह पुरुष व महिला अपने घर से घाट तक दंड भरता हुआ जाता है। संध्याकालीन अर्घ्य देकर वापस आने के बाद कलसुपों को दवरा से निकाल दिया जाता है। पकवानों को बदलकर नए पकवान रखे जाते हैं। कहीं कहीं पकवान के साथ ही सूप के फल भी बदल दिए जाते हैं।
रात को कोषी भरा जाता है। कोषी भरने से तात्पर्य है छठी माता की गोद भराई। छठ तिथि होने के कारण इसे छठी मईया के रूप में माना जाता है। कोषी भरने बाद जलते हुए दीपों को नदी या तालाब में बहा दिया जाता है। सुबह होने से पूर्व रात के अन्धेरे में नदी किनारे जलते दीपों का तैरना बहुत मनोहारी लगता है।
अस्त होते सूर्य की आराधना के बाद छठ की रस्म पूरी नहीं होती वरन उस रात घाट पर जागरण होता है। दूसरे दिन सुबह प्रात:कालीन अर्घ्य देने के लिए व्रती महिलाएं घंटों जल में खड़ी होकर सूर्योदय की प्रतीक्षा करती हैं। छठ व्रत करने वालों के बीच यह मान्यता है कि इसे नियमपूर्वक करने से सारे कष्ट दूर होकर घर में धन धान्य में वृद्घि होती है
किवदन्तियां भी प्रचलित हैं
छठ का व्रत कब और कैसे प्रारम्भ हुआ यह निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता परंतु किवदंती है कि इसका प्रारम्भ महाभारत काल से हुआ। इसी कथा प्रचलित है कि जब जए में पाण्डव अपना राज पाट हार गए और भारी विपत्ति में पड़ गए तब इस व्रत से द्रोपदी की कामनाएं पूरी हुई और पांडवों को राज पाट वापस मिल गया। दूसरी तरफ यह भी कहा जाता है कि इस व्रत के प्रारम्भ करने वाले दानवीर कर्ण थे।
आस्था तो बरकरार रहेगी ही
बिहार का प्रसिध्द लोक पर्व प्रतिवर्ष दीपावली के बाद आने वाली छठ तिथि को बड़े पैमाने पर छठ पूजा के रूप में मनाया जाता है। इस वर्ष कोरोना संक्रमण के कारण इस भव्यता में कोविड 19 की नियमावली असर जरुर दिखाएगी लेकिन बिहार में हाल के चुनाव में नितीश कुमार की अगुवाई वाली सरकार पर्व की महत्ता को ध्यान में रखते हुए बेहतर इन्तजाम करेगी जिससे इस लोक आस्था के पर्व को पहले की तरह ही मनाने की प्रक्रिया पूरी हो सके। फिर भी सुरक्षा कारणों से इस बार वह रौनक शायद पर्व पर देखने को ना भी मिले । नियमों का पालन करते हुए अधिकांश व्रती इस पर्व को घर पर ही मनाने को उत्सुक दिख रहे हैं। प्रांत से कोरोना काल में विभिन्न स्थानों पर रोजगार के लिए गए नागरिक जो लाक डाउन में घर लौट आये थे वे अभी अपने कार्य स्थल पर पुन: लौटे हैं ऐसे में पर्व में शामिल होने की उनकी सम्भावना भी कम ही लगती है। जो भी हो नागरिकों की उपस्थिति वर्तमान में कोरोना की वजह से कम हो सकती है लेकिन इस पर्व के प्रति लोगों की आस्था किसी भी परिस्थिति में प्रभावित नहीं होगी।
पाठक
निशिकांत मंडलोई, इंदौर