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प्रेम लहर: प्रीतम और प्रियतमा
यह निरभ्र आकाश मुझे भरता है, चुपचाप यह मुझसे रिसता है। मैं इसी से अभिशीत होना जान गया हूँ। कहने को तो कह दूँ। किन्तु अब तक जो कहा, उसे ही सुनना बच गया है। और जितना सुन पाया हूँ, वह वही नही है जो कि कह गया था। यह समूचा परिवर्तन मुझे आश्चर्य की उस स्थिति में खड़ा कर देता है, जहाँ से मेरे बोल चुप्पी को परखते हैं। यद्यपि यह योग्यता भी नहीं कि इस चुप्पी को समझ सकूँ, किन्तु यदि सबकुछ समझ ही लिया जाता तो चुप्पी का अस्तित्व ही क्योंकर होता। मैं स्वयं को चुप होकर बोलते हुए सुनता हूँ। शब्द पर्यायवाची ढूँढने निकल लेते हैं। कितने ही समानार्थी शब्द ऊँघने लगते हैं। वह प्रतिपल बदलता है। देखा गया अनदेखा हुआ जाता है। समुझा गया कहीं भीतर अवगुंठन से झाँकता है। वह प्रकट होकर भी किसी क्षितिज की भाँति मुझे घूरता है। मैं उसके बीच से इसी क्रमबद्धता में सिकुड़ जाता हूँ। उसकी व्यापकता मुझे घेरती है। उसके पार चले जाने के सभी उपाय व्यर्थ मालूम होते हैं। तो मैं सबकुछ उसे सौंप देता हूँ। यह सौंपना मेरी वृत्ति की अनिवार्यता है। उसमें घुल जाना मेरी चित्तवृत्ति को उसके जानने में उतार देता है। उसकी विशालता इतना तो कर ही देती है कि मुझे अपने क्षुद्र होने में भी कोई रस मिलता है। मैं उसका हूँ, यह बात ही इतनीं पर्याप्त है कि अब और कुछ हो न हो। सहसा मीरा को स्मृत कर उनके संग मैं भी हँसता हूँ।
मैं बहता हूँ। सर्व स्वीकार्य के तल पर चलता हूँ। हर क्षण अपने को मिटाता हूँ कि जो चिह्न अभी उभरने को है, वह उभर जाय। यह प्रवाह मुझे आश्रम करता है। अपने को लहरों में सौंप देना मुझको भाता है। वे जहाँ भी ले जाती हैं, हो लेता हूँ। अन्त में मुझे तो वही जाना है न जहाँ कि लहर है। मेरी सम्भावना बस इतनी ही है। मैंने व्यर्थ को जोड़ना ही छोड़ दिया है। क्योंकि हर व्यर्थ कल को टूटता है। बहना मुझे बचाता है। बह लेने में किनारे पर लग जाने की भी चेष्टा छूट जाती है। लहर की पूरी प्रकृति अब मेरी है। उसका पूरा अध्याय मेरा समापन है। मेरा जो भी अभीप्सित रहा होवे, वह अब उसी में निश्चेष्ट हो गया है।
सम्भवतः सागर ही उसका समापन है। यदि यह भी नहीं तो भी कोई टूटकर निकली ताल तलैया। यदि यह भी नही तो भी कहीं कोई सञ्चित उपस्थिति। यदि यह भी नही तो सम्भवतः इसी हवा में कहीं घुल जाना। यदि यह भी नहीं तो भी किसी की प्यास से होकर पुनः रह जाना।यदि यह भी नहीं तो भी कोई बादल राग। यह अस्तित्व मुझको ऐसे ही सहस्र बार निचोड़ता है। मैं प्रत्येक सम्भावना को उसके ही भवितव्य पर छोड़ देता हूँ। यह मेरी यात्रा है। आजतक के अनुभव यहीं बतलाते हैं कि यह रुकती नहीं। तो मैं सभी अड़चनों को अपनी ओर से हटा लेता हूँ। मेरा कृत्य भी उसके संयोग और सहजोग से चलता है।
यह देश जहाँ भी होवे किन्तु मैंने तो पूछना भी छोड़ दिया है। सहसा हवा दूर की पात ले आकर मुझपर चढ़ा देती है। मैं उसी पास में निःस्वास हो जाता हूँ। बदली चढ़ चढ़कर मेरे चक्कर लागाने लगती है। कोई बूँद उस बन्ध को तोड़कर अपनी बाँध के अवयव मुझपर छुआ जाती है। कच्ची नाली से चलकर आती जलधारा बुजबुज करती हुई थम जाती है। ज्यों वह समझ गयी हो। ज्यों वह समस गयी हो। खोते से टूटा कोई तिनका धरती पर थिर गया है। चिड़िया मुँह खोले उसे गिरते हुए देखती है। मेरे सर्वत्र परिवर्तन का निष्कलंक घटित घटता है। कितनी बातें यों ही चलती रहती हैं। और कितनी ही बातें यों ही रह जाती हैं।
वह प्रीतम भी बचे रहने से नही मिलता। मैं उसके जैसे हो जाने को ही हुआ हूँ। वह नित्य और निष्पुराण है। कल जो है , वह आज कल जैसा है। कल जो होगा, वह आज ही कल जितना है। मैं तो मात्र उतना हूँ जितने में कि उसके जितना हूँ।
कुछ तो अन्तिम है। या कि अन्तिम का पुनरीक्षण। मैं जो हूँ, वह सदा रहा है क्योंकि वह जो है, कभी आया ही नही था। वह अब समीप है। इतना कि मैं दर्पण में उसी को निखारता हूँ, निहारता हूँ। मैं उसी की अनगिनत अभिव्यक्तियों में अपनी पहचान को सँवारता हूँ। मुझे स्वयं के जितना ही रहना है। यह ही मेरा प्रेम है। यह ही उसके प्रति मेरे प्रेम का अभिष्टुत। और इसे ही मैं वारंवार कहता जाऊंगा..!!
प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार
लखनऊ, उत्तर प्रदेश