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माँ के हाथ का हलवा
माँ के हाथ में वैसे भी जादू होता है, उनका ममतामयी चमत्कार स्नेहाशीष बनकर सर्वथा अपनी संतानों के लिए समर्पित रहता है। इन पंक्तियों को संजीदा करती हमारी यह रचना "माँ के हाथ का हलवा" जिसको मैंने तब पंक्तिबद्ध किया था.. जब थका, हारा घर पर पहुँचते ही मैंने माँ से कहा था कि, आज सूजी का हलवा खाने का मन है, बहुत जोरों की भूख लगी है। मेरे अक्षरश: शब्दों की ध्वनि जैसे ही माँ के कानों में गई तत्क्षण माँ ने हलवा बनाना शुरू कर दिया। तत्पश्चात मैं जितनी देर हलवे की प्रतीक्षा में आत्ममंथन करने में लगा था, तभी माँ ने मेरे समक्ष हलवा भी लाकर रख दिया। मेरी भूख का वेग इतना अधिक था, कि तुरंत ही हलवे पर टूट पड़ा। मेरे खाने की तीव्रता देख माँ भी अचरज में पड़ गयी। उन्होंने मुझसे प्रश्न भी किया खाते वक़्त कि, कैसा बना है हलवा? पर मैं तो तन्मयता से खाने में लगा था। और अंततः एक समय आया जब मैंने पूरा हलवा खा लिया था। तभी मैंने माँ से कहा कि, तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर मैं बोल कर नहीं, लिख कर दूंगा! आज वही पंक्तियाँ मैं आप सभी स्वजनों के स्नेह एवं आशीष हेतु प्रस्तुत कर रहा हूँ..!!
ये जो माँ के हाथ का बना हलवा है,
इसका भी अलग ही एक जलवा है।
पहले सूजी को अच्छे से साफ़ करती हैं,
किसी भी घुन को नही माफ़ करती हैं।
फिर स्टोव पर कढ़ाई को चढ़ाती हैं,
भूरा लाल होने तक सूजी को पंकाती हैं।
भीनी भीनी खुशबू आनी शुरू हो जाती है,
माँ फिर से रसोई घर की गुरु हो जाती हैं।
पानी, घी सूजी में अच्छे से मिलाती हैं,
स्टोव को धीमी आंच में जलाती हैं।
तब तक बादाम किशमिश भी काट लेती हैं,
गरी के खोपे को भी अच्छे से छांट लेती हैं।
किशमिश बादाम को अच्छे से मिलाती हैं,
गरी से हलवे को फिर अच्छे से सजाती है।
हलवा कटोरी में फिर हलवा परोस लाती हैं,
सबसे वाह मजा आ गया का घोष पाती हैं।
सुबह हो या शाम हलवा जब मिल जाता है,
आत्मा होती है तृप्त और दिल खिल जाता है।
माँ की बेमिसाल रसोई फिर से छा जाती है,
हलवे की आखिरी सूजी तक भा जाती है।
ये जो माँ के हाथ का बना हलवा है,
इसका भी अलग ही एक जलवा है।।
प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार
लखनऊ, उत्तर प्रदेश