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जब-जब लोगों ने अपनी जान गवांई, तब-तब सरकार आई हरकत में, बाकी दिनों में स्थिति “ढाक के तीन पात“ ही
25, Aug 2022 2 years ago

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माही की गूंज, संजय भटेवरा

        झाबुआ। जब-जब प्रदेश में किसी तरह के गंभीर सड़क हादसे होते है और कई लोग अपनी जान से हाथ धो बैठते है, तब-तब सरकार हरकत में आकर ‘‘सांप निकल जाने के बाद लाठी पीटने का काम करती है’’, यह कोई आज की बात नहीं है। सरकार और उसका तंत्र तभी हरकत में आता है जब उस पर सवालिया निशान लगने लगते है। ऐसा प्रतीत होता है मानों यह सरकार और उसके तंत्र के खून में ही है कि, जब तक किसी की जान नहीं जाती तब तक जो जैसा चल रहा है उसे वैसा ही चलने दिया जाए। जब भी प्रदेश में इस तरह के गंभीर हादसों में लोगों की जान जाती है, तो वही खून में शामिल बीमारी बाहर आ जाती और एक हल्ला पूरे प्रदेश में हो जाता वह भी यह दिखाने के लिए कि, सरकार इन मुद्दों पर कितनी सजग और मुस्तैद है।

        हाल ही में पिछले दिनों उज्जैन जिले के उन्हैल में स्कूली बच्चों से भरा वाहन दुर्घटनाग्रस्त हुआ, जिसमें चार नौनिहालों ने अपनी जान की आहुति दी, 12 बच्चे इस हादसे में गंभीर रूप से घायल हो गए। तब जाकर सरकार व उसके तंत्र की नींद खुली और पूरे प्रदेश में जैसे हल्ला सा मच गया। अब पूरे प्रदेश में स्कूली बच्चों का परिवहन करने वाले वाहनों पर एक तरफा कार्रवाई की जा रही है। या यूं कहें कि, सरकार व उसका तंत्र अपनी नाकामी, गलतियों और विफलता को छुपाने के लिए फिर एक अभियान लेकर सड़कों पर उतर आया है। वैसे वर्ष के बाकी दिनों में स्थिति ‘‘ढाक के तीन पात’’ ही साबित होती नजर आती है।

        यूं तो वर्ष भर सरकार व उसका तंत्र सड़क दुर्घटनाओं को लेकर कभी सजक दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन जब-जब कोई गंभीर सड़क दुर्घटनाएं सरकार व उसके तंत्र की पोल खोलती दिखाई पड़ती तो सारे बागड़ बिल्ले अपना भोपू लेकर सड़क पर उतर आते और कार्रवाई के नाम पर ढकोसला शुरू हो जाता। हालांकि यह ढकोसला दो-चार दिन या एक सप्ताह से अधिक समय का नहीं होता, उसके बाद सरकार और उसके तंत्र की सारी सजगता चाद्दर तान कर सो जाती है।

        हर वर्ष स्कूली विद्यार्थियों के साथ कोई ना कोई बड़ा हादसा सामने आते रहे है और कारण भी समय के साथ सामने आते रहे है। लेकिन इन दुर्घटनाओं को लेकर सरकार द्वारा किए गए सारे करमकांड सिफर ही नजर आते रहे है। नौनिहालों के साथ होती इन दुर्घटनाओं का अब तक किसी तरह का कोई हल निकलता दिखाई नहीं दे रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण सरकार की नाकामी को ही माना जा सकता है। हालांकि अभिभावकों में इस हेतु जागरूकता का होना बहुत जरूरी है। वर्तमान में स्थिति कुछ ऐसी है कि, पूरे प्रदेश में स्कूली बच्चों को लाने ले जाने वाले वाहनों का किसी प्रकार का डाटा अब तक सरकार के पास नहीं है। हालात इतने गंभीर है कि, बिना परमिट के कंडम वाहनों में बच्चों को सफर कराया जा रहा है। इस तरह के वाहनों के पास पर्याप्त दस्तावेज भी मौजूद नहीं होते है। कहीं बीमा खत्म तो कहीं परमीट नदारद, वाहनों की हालत भी ठीक नहीं और उस पर सितम यह कि बिन वैध दस्तावेज के अवैध गैस वाहनों में बच्चों को भेड़-बकरी की तरह भरकर स्कूल लाया ले जाया जाता है। अब जबकि प्रदेश में एक और हादसे में चार स्कूली बच्चों ने अपनी जान गवाई है, तो सरकार व उसका तंत्र फिर सड़कों पर आ गया है। चार बच्चों की जान जाने के बाद कई अभियान चलाए जा रहे है, तो कही सड़क जागरूकता सप्ताह मनाया जा रहा है। मासूम नौनिहालों की जान भी इन अभियानों व जागरूकता सप्ताह के बाद व्यर्थ ही साबित हो जाएगी, जैसा कि पूर्व के हादसों में स्कूली बच्चों के साथ होती आई है।

        उज्जैन जिले के उन्हैल में हुई इस घटना के बाद मध्यप्रदेश के पश्चिमी छोर पर बसे आदिवासी बाहुल जिले में भी प्रशासन हरकत में आया और परिवहन विभाग व यातायात अमले ने ढकोसले की शुरूआत कर दी है। आए दिन अखबारों की सुर्खियों में रहने वाला परिवहन विभाग अपने कर्तव्य की इतिश्री करने के लिए सड़कों पर उतर कर स्कूली बच्चों का परिवहन करने वाले वाहनों पर चालानी कार्रवाई करता दिखाई दे रहा है। तो यातायात अमला भी यातायात सप्ताह व सड़क सुरक्षा जागरूकता अभियान मनाता नजर आ रहा है। यातायात अमला शहर में घूम रहे दो पहियां वाहनों पर चालानी कार्रवाई भी कर रहा है। हालांकि यातायात अमला आम दिनों में भी यही काम करते अक्सर दिखाई पड़ता है, लेकिन परिणाम के नाम पर अब तक स्थिति शुन्य ही है। हां यह जरूर है कि परिवहन विभाग का राजस्व वसूली का टारगेट जरूर पूरा हो जाता है।

        परिवहन विभाग के आला अधिकारी की बात की जाए तो इनकी भी बात निराली ही है। आदिवासी बाहुल जिले से कई अवैध बसें ग्रामीण आदिवासियों को भर कर मनमाने किराए में अन्य राज्य के लिए परिवहन करती है। लेकिन आरटीओ मेडम मोहटा को यह दिखाई नहीं देता है। जिले में चलने वाली सवारी बसों पर भी अब तक किराया सूची चस्पा नहीं हो पाई है, मगर इस आमजन से जुड़े मुद्दे से भी मेडम को कोई मतलब नहीं है। अब मेडम का इन मुद्दों को लेकर कोई रूची ना लेना बड़ी गठजोड़ की तरफ ही इशारा करता है। हालांकि दलालों की माने तो जिले से अन्य प्रदेशों में सवारियों का परिवहन करने वाली अवैध बस मालिकों द्वारा मेडम की मांग अच्छी तरह से भरी जाती और मुंह भी मीठा कराया जाता रहता है। यही हालत जिले में चलने वाली यात्री बसों के मालिकों का भी है जिसके चलते वे यात्रियों से मनमाना किराया वसूल कर रहे है। मतलब सीधा सा है कि बस मालिकों की अवैध कमाई में आरटीओं का भी हिस्सा फिक्स रहता है।

         23 अगस्त को मेघनगर के एक निजी स्कूल में बच्चों का परिहवन करते हुए पांच अवैध वाहनों पर एसडीएम के नेतृत्व में आरटीओ अमले ने चालानी कार्रवाई की। यह एक विचारणीय प्रश्न है कि, जब जिले के छोटे से कस्बे के एक स्कूल में बच्चों का परिवहन करते पांच अवैध वाहन हो सकते है, तो जिले में चल रही तमाम निजी शैक्षणिक संस्थाओं के कितनें अवैध वाहन बच्चों के परिवहन में इस्तेमाल होते होंगे...? हालांकि यह एक कड़वा सत्य है कि निजी शैक्षणिक संस्थाएं इन अवैध वाहनों से किसी तरह का संबंध होने से इंकार कर दे। मगर इस तरह के वाहनों में विद्यार्थियों का परिवहन तो होता ही है। इस तरह के वाहनों में बच्चों को स्कूल भेजना पालकों की मजबूरी भी कही जा सकती है। क्योंकि निजी शैक्षणिक संस्थाओं में बच्चों के ट्रेवलिंग का खर्च बहुत अधिक होता है। उदाहरण के तौर पर जहां यही अवैध वाहन प्रति बच्चे को स्कूल लाने ले जाने का प्रतिमाह 6 सौ से 1 हजार रुपये तक अभिभावकों से लेते है। वहीं निजी शैक्षणिक संस्थाओं के वाहनों में यह फीस दो गुनी के करीब अभिभावकों से वूसली जाती है। यही सबसे बड़ा कारण है कि अभिभावक महंगाई के इस दौर में दो पैसे बचाने के चक्कर में इन अवैध स्कूली वाहनों में अपने बच्चों को स्कूल भेजते है।

         अब सवाल यह भी खड़ा होता है कि, क्या परिवहन विभाग या अधिकारी ने कभी यह कोशिश की कि निजी स्कूलों में चलने वाले स्कूली वाहनों का किराया किस तरह से वसूला जाता है या स्कूल के निजी वाहनों में सुरक्षा के वे सभी मापदंड पूरे किये जाते है जो बच्चों की सुरक्षा के लिए जरूरी है...? कहीं निजी शैक्षणिक संस्थाएं अभिभावकों से बच्चों के ट्रेवलिंग चार्ज के नाम पर बहुत ज्यादा खर्च तो नहीं ले रही है...? इस तरह के सवालों का जवाब शायद परिवहन विभाग के आला अधिकारी के पास नहीं होगा। मगर हालात कुछ ऐसे है कि निजी शैक्षणिक संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे वाहनों का खर्च इतना अधिक है कि अगर अभिभावक अपने पर्सनल वाहन से भी बच्चों को स्कूल छोड़े तो वह भी सस्ता ही पड़ेगा।

          कुल मिलाकर जब-जब स्कूली बच्चे सड़क हादसों का शिकार होंगे या जब-जब बड़ी सड़क दुर्घटनाएं सामने आएंगी तब-तब सरकार व उसका तंत्र अपनी गलतियों को छुपाने के लिए सड़कों पर उतरेगा और कुछ ही दिनों की कार्रवाई के बाद अपने कर्तव्य की इतिश्री करते हुए फिर से चाद्दर तान कर सो जाएगा। जबकि परिवहन अमले को अपनी कर्तव्यनिष्ठा का प्रदर्शन करते हुए लगातार इस तरह की कार्रवाई करते रहना चाहिए।

ट्रक से भीडा वाहन जिसमें 15 स्कूली बच्चें थे सवार चार की मौके पर हुई थी मौत।


चार मासुम, भव्यांश पिता सतिश जैन, सुमित पिता सुरेश, उमा पिता ईश्वरलाल, इनाया पिता रमेश नादेड की अर्थिया एक साथ उठी थी जिसके बाद  सरकार व तन्त्र कर रही अपनी सजगता का ढ़कोसला।


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