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अब भी अंधविश्वास के अंधकार से जकड़ा जिला, मासूमों की जान दाव पर...?
Report By: मुज्जमील मंसुरी 26, Sep 2025 2 weeks ago

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प्रशासनिक कवायदें सिर्फ कागजी घोड़े ही साबित होती दिखाई पड़ती है

माही की गूंज, झाबुआ। 

    आजादी के लगभग आठ दशक बीतने को है मगर मध्यप्रदेश के ठेठ पश्चिमी छोर पर बसे आदिवासी जिले में अब भी अंधविश्वास का भारी बोलबाला है। वजह यह भी कि, आजादी के इतने समय बाद यहां शिक्षा, जागरूकता, समृद्धी और सम्मानजनक जीवन यापन अब भी दीवा स्वप्न ही साबित हो रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश में सबसे गरीब जिलों में अब भी आलीराजपुर और झाबुआ का नाम पहले और दूसरे स्थान पर है। जबकि जारी सरकारी आंकड़े इन जिलों में शिक्षा के सुधार को उपलब्धी गिनाते नहीं थकते। गरीबी का आलम यह है कि, जिले से अब भी रोजगार के नाम पर पलायन जारी है और यह इतना है कि गांव के गांव रोजगार के लिए अन्य प्रदेशों में पलायन कर जाते है। मगर सरकारी आंकड़ों में जिले की आर्थिक स्थिति पहले से मजबूत ही नजर आती है। यहां ना तो सही ढंग से ग्रामीणों को शिक्षा उपलब्ध हो पा रही है और ना ही स्वास्थ्य। यहां के ग्रामीण आदिवासी आए दिन किसी न किसी असुविधा के लिए सरकारी दफ्तरों को घेरते और आंदोलन करते दिखाई देते है। शिक्षा का आलम ऐसा कि विद्यार्थियों को अपनी जरूरतों के लिए पढ़ाई छोड़कर आंदोलन करने पड़ते है। सरकार ने यहां ग्रामीण आदिवासियों के लिए यूं तो कई तरह की सुविधाएं उपलब्ध करा रखी है, लेकिन जागरूकता के अभाव और अंधविश्वास के चलते यह सारी सुविधाएं समय आने पर शुन्य ही साबित होती है। सोने पर सुहागा तब होता है जब इन सारे मामलों में अधिकारियांे की लापरवाहीयां उजागर होती है। अपनी कमियों को उजागर होता देख प्रशासन भी फरियादियों को रोकने के लिए ऐड़ी चोटी का जोर लगाता और पुलिस का सहारा लेते नजर आता है।

    हाल ही में जिला मुख्यालय पर एक ऐसा मामला सामने आया है जिसने जिले में फैली अशिक्षा और अंधविश्वास से एक बार फिर पर्दा उठा दिया है और प्रशासनिक सुविधाओं और कार्यप्रणाली को धत्ता साबित कर दिया है। कहने को तो जिला मुख्यालय पर सर्वसुविधा युक्त जिला चिकित्सालय है। इस जिला चिकित्सालय में तरह-तरह के प्रशिक्षित और अनुभवी डॉक्टर मौजूद है। मगर कई बार यह जिला चिकित्सालय भी कई असुविधाओं के चलते अखबारों की सुर्खियों में नजर आता है। विडम्बना यह कि, इतना बड़ा अस्पताल जिले में होने के बावजूद जिले के ग्रामीण जिले से सटे अन्य प्रदेशों में इलाज के लिए जाना ज्यादा उचित समझते है या फिर अंधविश्वास के चलते बड़वे-भोपों के चक्कर में पड़कर अपनी जान से खिलवाड़ करते है। यहां एक बात तो बिल्कुल साफ है कि, सरकारें चाहे जितनी सुविधाएं यहां उपलब्ध करा दे लेकिन जब तक लोगों में इन सुविधाओं को लेकर विश्वास और जागरूकता नहीं जगा पाती तब तक स्थिति ढाक के तीन पात ही साबित होगी। जिले से अधिकतर ग्रामीण और शहरी लोग गुजरात के दाहोद सिर्फ अपने इलाज के लिए जाते है, जब उनसे यह पूछा जाता है कि, यहां पर भी तो अस्पताल है। तो वे कहते है कि, अस्पताल तो है लेकिन इलाज और व्यवस्थाएं ठीक नहीं है इसलिए गुजरात जाते है। मतलब सीधा सा है कि, जिला प्रशासन या स्वास्थ्य विभाग अब भी जिलेवासियों को यह विश्वास दिलाने में नाकाम रहा है कि, उन्हे जिले में ही जिला चिकित्सालय में अच्छा उपचार उपलब्ध हो सकता है। नतीजा यह निकल कर सामने आ रहा है कि, जिले के ग्रामीण आजादी के साढ़े सात दशक बाद भी अंधविश्वास में जकड़े होकर अपना व अपने बच्चों का इलाज डॉ. से ना करवाते हुए बड़वे-भोपों से करवा रहे है।

    ताजा मामला जिला मुख्यालय के जिला चिकित्सालय में ही देखने को मिला। जहां महज 48 घंटों में तीन ऐसे बच्चे उपचार के लिए पहुंचे जिन्हे निमोनिया की शिकायत थी। मगर इन बच्चों के परिजनों ने बच्चों के बीमार होने पर पहला विश्वास बड़वों और तांत्रिकों पर जताया और बड़वों से मासूम बच्चों के सीने पर गर्म सरियों से दाग लगवाया। स्थिति बिगड़ने के बाद वे अपने बच्चों को जिला चिकित्सालय लेकर पहुंचे। हालांकि इन बच्चो में दो माह से लेकर 2 साल तक के बच्चे शामिल है। डॉक्टरों ने गंभीर अवस्था में बच्चों का उपचार शुरू भी कर दिया। हम कामना करते है कि, ये तीनों बच्चे जल्द स्वास्थ्य हों... लेकिन अब जिले की स्वास्थ्य सुविधाओं और प्रशासन के जागरूकता अभियानों पर सवाल बहुत से है।

    क्या यह नहीं होना चाहिए था कि, बच्चों के बीमार होने पर परिजनों का पहला विश्वास जिले के स्वास्थ्य विभाग और उसके डॉक्टरों पर होना चाहिए था...? आखिर ऐसा क्यों नहीं हुआ कि, परिजन अपने बीमार बच्चों को लेकर पहले बड़वे या तांत्रिक के पास पहुंचे डाक्टरों के पास नहीं...? क्या यह प्रशासन की विफलता नहीं है कि, आजादी के साढ़े सात दशक बाद भी जिले के ग्रामीणों को अंधविश्वास से मुक्ति नहीं मिल पाई...? आखिर क्यों इतने दशकों बाद और इतनी स्वास्थ्य सुविधाओं के बावजूद स्वास्थ्य विभाग जिले के ग्रामीणों में विश्वास नहीं पैदा कर पाया..? या फिर यह मान लिया जाना चाहिए कि, प्रशासनिक तंत्र में बैठे अधिकारी जिले में सिर्फ और सिर्फ माथा उतारनी ही करने के लिए बैठे है।

    एक तरफ तो कलेक्टर, मोटीआई जैसे अभियानों को प्रमोट करती नजर आती है। इसके लिए वे प्रदेश व राष्ट्र स्तरीय पुरस्कार भी पाती है, लेकिन विडम्बना कि, उसके उलट जिले में अब भी अंधविश्वास अपने पूरे जोर पर है। जहां बीमार होने पर अब भी बच्चों को बड़वे और तांत्रिक गर्म सरियों से दागते है। यह उन अधिकारियों के मुंह पर खुला तमाचा है जो मोटीआई अभियान का ढिंढोरा पीटते नहीं थकते।

    ऐसा नहीं है कि, बीमार बच्चों को दागने का जिले में यह कोई पहला मामला है। इससे पहले भी लगातार हर वर्ष जिले में कहीं न कहीं से इस तरह की खबरें सुनने को मिल ही जाती है। 2023 में जब इस तरह का मामला सामने आया था तब मानवाधिकार आयोग ने इस पर जिले के आला अधिकारियों से रिपोर्ट तलब की थी। तत्समय निमोनिया ग्रसित बच्चों को दागने वाले बड़वों को गिरफ्तार भी किया गया था। लेकिन वर्तमान में मामला सामने आया है उसने स्थिति को ढाक के तीन पात साबित कर दिया है। यह भी साबित कर दिया है कि, अधिकारी यहां जिले को सिर्फ प्रयोगशाला मानकर ही आते है, नित नए प्रयोग करते है, अवार्ड-रिवार्ड लेते है और चल देते है। उन्हे जिले की गरीब जनता से कोई लेना-देना नहीं है। पिछले वर्षों में यह देखा गया है कि, इस तरह निमोनिया ग्रसित बच्चों को दागने के मामले जिले के पिटोल, कल्याणपुरा, राणापुर और अब झाबुआ जैसे क्षेत्रों में देखने को मिले है। यह भी चिंता का ही विषय है कि जिला मुख्यालय के आसपास 5-10 किलोमीटर के दायरे में बसे ग्रामीण ही इस बार बच्चों को गंभीर हालत में लेकर अस्पताल पहुंचे है, जिनके शरीर पर बड़वों, तांत्रिकों द्वारा गर्म सरिये से दागने के निशान मौजूद है। हालांकि चिकित्सकों ने लिखित में इसकी सूचना पुलिस को दी है।

    मगर सवाल तो सवाल है उठेंगे...! क्या कलेक्टर को इस तरह के मामलों को संज्ञान में नहीं लेना चाहिए...? जिस तरह मोटीआई अभियान का ढिंढोरा पीटा गया क्या उसी तरह अंधविश्वास के खिलाफ कलेक्टर को अभियान नहीं छेड़ना चाहिए...? जिस तरह जागरूकता के अभाव में ग्रामीण परीजन अपने बच्चों की जान के साथ खिलवाड़ करते हुए बड़वों और तांत्रिकों को प्राथमिकता दे रहे है... क्या उस पर रोक नहीं लगनी चाहिए...? हालांकि हो सकता है कि, इस अभियान में कलेक्टर को कोई मेडल या सम्मान ना मिले, लेकिन अंधविश्वास के खिलाफ अभियान की शुरूआत होती है तो यह मान लिजिए कि परीणाम सकारात्मक ही आएंगे। मेडल मिले ना मिले लेकिन दुआएं जरूर मिलेगी।

    दूसरी तरफ जिले के जनप्रतिनिधि जो खुद आदिवासी होकर कई तरह के अभियान समाज की कुरितियों को दूर करने के लिए चला रहे है उन्हे भी यह शुरूआत करनी होगी। जिस तरह से जिले में थ्री डी अभियान चलाया गया उसी तरह अंधविश्वास और बड़वों-तांत्रिकों के खिलाफ भी अभियान चलाया जाना चाहिए। क्योंकि अंधविश्वास में फंसकर नुकसान आदिवासी समाज का ही हो रहा है। आने वाली पीढ़ियों को बड़वों-भोपों के जाल से सुरक्षित कर शिक्षा की ओर ले जाना बहुत जरूरी है। जिससे भविष्य में आदिवासी समाज और जिले की दशा और दिशा में सुधार आने की प्रबल संभावना है।


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