
पत्रकारों को एसपी साहब का कहना है सबका इशुस पता है....?
धौंस और धमकी से चाटूकारों की आवाज दबाई जा सकती है स्वतंत्र पत्रकारों की नहीं
माही की गूंज, झाबुआ।
जिले के इतिहास में यह पहला ही मौका होगा जब जिले के स्वतंत्र पत्रकारों को अपनी कलम और सम्मान के लिए जिला प्रशासन से दो-चार होना पड़ रहा है। जिले में बैठे दोनों ही कप्तानों ने जिले की स्थिति ऐसी बना दी है मानों अब सेवा के संकल्प से नहीं आदेशों और निर्देशों के डंडे से ही हर काम करवाया जाएगा। फिर चाहे वह उनके कार्यक्षेत्र का हो या न हो, सही हो या गलत। कुल मिलाकर वर्तमान स्थिति में जिला अधिकारियों के रवैये किसी तानाशाह हुकमरान से कम नहंी दिखाई पड़ रहे है। वैसे हमारा देश एक लोकतांत्रिक देश है और लोकतंत्र के स्तम्भों में एक हिस्सा पत्रकार बिरादरी का भी है। पत्रकारिता के इसी चौथे स्तम्भ को सरकार का शसक्त विपक्ष भी कहा जाता है। लोकतंत्र के इस चौथे स्तम्भ ने अपनी भूमिका और किरदार को आजादी के बाद से कुछ समय पूर्व तक बखूबी तरीके से निभाया भी है। मगर वर्तमान परिस्थितियां जो है वह यह दर्शाती है कि, इस चौथे स्तम्भ का एक बड़ा तबका और उससे जुड़े बड़े अखबार और इलेक्ट्रानिक मीडिया चैनल सरकार से सवाल करने के बजाय उनके आगे नतमस्तक होकर बैठ गए है।
इस स्थिति में भी जमीन से जुड़े जिले के स्वतंत्र पत्रकार अपने कर्तव्य को निस्वार्थ रूप से पूरी मेहनत और लगन के साथ अंजाम देने में लगे हुए है। प्रशासनिक तंत्र के तानाशाह रवैये और सरकारी योजनाओं की पोल भी खोल रहे है और यही बात सरकार के तंत्र में बैठे प्रशासनिक अधिकारियों को हजम नहीं हो रही है। नतीजा यह सामने आने लगा है कि, प्रदेश सरकार के बैलगाम अधिकारी अब पत्रकारों को डराने और धमकाने से भी नहीं चूक रहे है। अधिकारियों की मंशानुरूप वे चाहते है कि, प्रशासनिक तंत्र व सरकार की खामियों को उजागर ना किया जाए। बल्कि उनके व उनके कामों के कसीदे पढ़े जाए। अगर कोई पत्रकार प्रशासनिक अधिकारियों व तंत्र की पोल खोलेगा तो फिर वह प्रशासनिक अधिकारियों की द्वेषता पूर्ण कार्रवाई का शिकार होगा। इसका एक कारण इन अधिकारियों को धोग देने व तलवे चाटने वाली पत्रकारिता भी है। जिला प्रशासन में बैठे अधिकारियों ने कुछ तलवे चाटने वाले पत्रकारों को अपने छर्रों की तरह ऐसे फिट किया है कि, साहब के एक आदेश पर वे सीधे उनके चरणों में जा गिरते है। इनमें से कुछ बड़े मीडिया संस्थानों से है, कुछ अधिकारियों के चापलूस और चाटूकार है, तो कुछ का अपनी ढपली अपना ही राग है।
पत्रकार दीर्घा में जाने हेतु जानकारी प्रेषित करने वाली पीआरओ कौन होती है-एएसपी कुर्वे
पिछले दिनों 27 मार्च को मुख्यमंत्री के दौरे के दौरान एक ऐसा मामला सामने आया जिसमें जिले के दोनों शीर्ष अधिकारियों व पत्रकारों के बीच हुई बहस ने दोनों ही अधिकारियों के रवैये और रिति-निती से पूरी तरह पर्दा उठाकर रख दिया। 27 मार्च को झाबुआ में मुख्यमंत्री सामुहिक विवाह योजना के अंतर्गत लगभग 2 हजार जोड़ों का सामुहिक विवाह हुआ। जिसमें प्रदेश के मुख्यमंत्री भी शामिल हुए। इस आयोजन के कवरेज हेतु पत्रकारों को भी जनसंपर्क कार्यालय से बकायदा निमंत्रण दिया गया। मगर आयोजन स्थल पर पत्रकारों के साथ कुछ ऐसा हुआ कि उन्हे पत्रकार दिर्घा में पहुंचने के लिए ऐड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। दरअसल जनसंपर्क से जारी किए गए निमंत्रण में और सूचना में पत्रकारों की एंट्री व्हीआईपी गेट से होना बताया गया। मगर जब पत्रकार, कार्यक्रम स्थल पर बने इस व्हीआईपी गेट पर पहुंचे तो उन्हे एडीशनल एसपी ने हड़का दिया और सीधे तौर पर यह कह दिया कि आपकी एन्ट्री यहां से नहीं होगी। जब पत्रकारों ने एडीशनल एसपी पीएल कुर्वे से बात की और बताया कि, जनसंपर्क कार्यालय से जिला जनसंपर्क अधिकारी ने तो हमें इसी गेट से एन्ट्री की सूचना दी है। मोबाईल पर पीआरओ से जारी किए गए निर्देशों को भी दिखाया मगर जवाब में कुर्वे जी पत्रकारों से बहस करते हुए कहने लगे कि आखिर पीआरओ होती कौन...? जबकि कुछ चापलूस और चाटूकार पत्रकारों को उसी गेट से कार्यक्रम स्थल पर एन्ट्री दे दी गई थी। जब पत्रकारों ने एडीशनल एसपी कुर्वे से यह जानने की कोशिश की कि, फिर पत्रकारों के जाने के लिए रास्ता कहां से है तो उन्हे टाल-मटोल जवाब देते हुए कह दिया कि रास्ता पीछे से है। अब पत्रकारों को इस बात की मशक्कत करना पड़ी कि, आखिर कुर्वे साहब ने जो रास्ता बताया है वह कहां है? ढूंढ टटोल कर जब पत्रकार ठिकाने पर पहुंचे तो वहां मौजूद पुलिस अफसर ने भी यही कहा कि, आपकी एंट्री यहां से नहीं है। इस सारी आपाधापी में इतना समय निकल गया कि मुख्यमंत्री की गाड़ी कार्यक्रम स्थल पर पहुंच गई। सारे रास्ते बंद कर दिए गए। अब पत्रकार कवरेज करने को लेकर असमंजस की स्थिति में आ गए। येन-केन प्रकारेण वे अपने बूते कार्यक्रम स्थल पर बनी प्रेस दीर्घा में पहुंच गए। यहां भी स्थिति यह बनी कि बैठने के लिए पत्रकारों को कुर्सियां कम पड़ गई।
इस सारे घटनाक्रम को लेकर पत्रकारों ने कलेक्टर और एसपी से चर्चा करने और शिकायत करने की ठानी। जब पत्रकार एसपी पद्मविलोचन शुक्ल और कलेक्टर नेहा मीणा से मिले तो माहौल पूरी तरह से गर्मा गया। पत्रकार जब अपनी आप बीती सुनाने लगे तो पत्रकारों और दोनों जिला अधिकारियों के बीच जमकर बहस बाजी हो गई। इस बहस बाजी में दोनों ही जिला अधिकारियों ने अपना आपा खो दिया और पत्रकारों को धौंस भरे अंदाज में कलेक्टर ने कहा कि, झाबुआ शहर के चप्पे-चप्पे पर प्रशासन ने कैमरे लगा रखे है, कौन क्या करता है सब की जानकारी है। इसी क्रम में पत्रकारों को धमकी भरे लहजे में एसपी शुक्ल ने कहा कि हमें पत्रकारों के इशुस पता है। इस धौंस और धमकी भरी बहस के बाद सभी अपने-अपने रास्ते हो गए। अब सवाल यह कि, जब एसपी और कलेक्टर को सभी पत्रकारों के बारे में पता है कि, उनके इशुस क्या है और वे क्या करते है, तो फिर वे दोनों खामौश क्यों है? देर किस बात की है। धमकी देने के बजाय जिनके इशुस है उन पर कार्रवाई क्यों नहंी करते। या फिर इस बात का इंतजार है कि, कुछ बड़ा धमाका होगा फिर कार्रवाई करेंगे तो वाह-वाही लूटने को मिलेगी।
मगर अब पत्रकारों के सम्मान की बात दाव पर है और यह तय है कि, वो पत्रकार जो जनता के हितों के लिए सरकार और तंत्र से दो-चार हो जाता है वह अपनी प्रतिष्ठा, गरीमा और आत्म सम्मान के लिए एकजुट होकर तानाशाही तंत्र व उसमें बैठे हिटलरशाही अधिकारियों के रवैये पर प्रतिक्रिया जरूर देगा। क्योंकि 27 मार्च को जो घटना पत्रकारों के साथ घटी वह उनकी सहनशीलता को लाघने वाली थी। यह कोई पहला मौका नहंी था जब पत्रकारों के साथ प्रशासनिक अधिकारियों का यह रवैया देखने को मिला इससे पहले भी कई उदाहरण है। जिसमें ताजा मामला मुख्यमंत्री का 9 मार्च का दौरा भी है। भगोरिया उत्सव देखने और भील महासम्मेलन में हिस्सा लेने पहुंचे मुख्यमंत्री के आयोजन में भी इसी तरह की एक घटना देखने को मिली थी। जिसमें पुलिस अधिकारियों का रवैया भी पत्रकारों के खिलाफ हिटलरशाही ही रहा था। 9 मार्च के इस आयोजन को लेकर इन्ही अधिकारियों ने इतनी तानाशाही लगाई थी कि जिस भगोरिया का व्यापारियों को साल भर इंतजार रहता है उसी भगोरिया के दिन सख्ती से व्यापारियों के प्रतिष्ठान बंद करवाए गए और उन्हे लाखों रूपये का नुकसान पहुंचाया गया।
बड़े बूढ़ों की एक बहुत ही लोकप्रिय कहावत है कि, बच्चे के बोलने का लहजा बता देता है की उसकी परवरिश और संस्कार कैसे है। जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल आईएस और आईपीएस अधिकारियों ने किया है। उससे जिले के स्वाभीमानी पत्रकारों को यह तो स्पष्ट समझ आ गया कि, इनकी तरबियत, संस्कार और संरक्षण किस स्तर का होगा। सवाल यह भी उठता है कि, आखिर इन अधिकारियों को जिन्हे जनता का नौकर कहा जाता है, जो आमजनता के खून पसीने की कमाई से निकलने वाले टेक्स पर पलते है, क्या इन्हे सरकार ने खुला संरक्षण दे रखा है, तानाशाही और गुंडागर्दी के लिए...?
यहां एक बात और गौर करने वाली है कि, जब सिनियर अधिकारियों का पत्रकारों के प्रति ऐसा रवैया है तो फिर 27 मार्च को एडीशनल एसपी कुर्वे की पत्रकारों से बहस को गलत नहीं कहा जा सकता। क्योंकि आखिर उनके उपर भी तो इसी तरह के अधिकारी बैठे है। रही बात एएसपी के पीआरओ कौन होती है...? वाले बयान की तो फिर कलेक्टर को कम से कम यह जवाब तो दे ही देना चाहिए कि जब पीआरओ कुछ नहीं है, तो जनसंपर्क से जारी होने वाले तमाम प्रेसनोट और जानकारियां प्रकाशित करने योग्य है या नहीं..? अगर पीआरओ कुछ नहीं है तो उनके द्वारा भेजे जा रहे महिमा मंडन करने वाले समाचार भी मिथक ही होंगे। अगर ऐसा है तो फिर प्रेस से अपेक्षाएं करना भी बैमानी ही होगी।
मगर यह सरकार का लौमड़ी की तरह चालाक तंत्र व उसमें बैठे अधिकारी ही है जो सिर्फ मीठा-मीठा ही गटकना चाहता है, कड़वा तो उसे बर्दास्त हीं नहंी जैसे ही उनके मुंह में कड़वाहट पहुंचती है, वे थू-थू करने लगते है। जैसे कि पिछली 27 मार्च को उन्होने किया। हालांकि ऐसा प्रतीत होता है कि, इन अधिकारियों को इसी तरह की कार्यशैली के लिए जिले में नियुक्त किया गया होगा। क्योंकि कुछ मामले ऐसे भी सुनने में आए है जिसमें पत्रकारों की आवाज दबाने के लिए इन्ही अधिकारियों ने नए-नए हथकंडे अपनाए है। जैसा कि एसपी साहब ने 27 मार्च को पत्रकारों को यह कहा था कि, सबके इशुस है...! और कलेक्टर मेडम नगर में लगे कैमरों से पत्रकारों पर नजर रखती है और उन्हे यह मालूम है कि, कौन क्या कर रहा है...! तो जब भी जिला प्रशासन या पुलिस के खिलाफ कोई समाचार प्रकाशित होता है तो यही दोनों अधिकारी अपने चाटूकार छर्रो से यह जानकारी जुटाने में मशगूल हो जाते कि आखिर फलां पत्रकार का इशुस क्या है...? जिला और पुलिस प्रशासन अपने सारे काम छोड़कर पत्रकारों के इशुस ढूंढता फिर रहा है। इससे यह अंदाजा लगाना बड़ा ही आसान हो जाता है कि, क्या इनकी कार्यप्रणाली में बस अब यही एक काम बचा है। वैसे भी जब-जब प्रशासन के खिलाफ कोई नकारात्मक खबर प्रकाशित होती है जिला और पुलिस प्रशासन एड़ी से चोटी का जोर लगाकर अपने धोग देने वाले और चाटूकार पत्रकारों से चार दूसरे अखबारों में अपनी वाह-वाही छपवाकर नकारात्मक खबर को दबाने का भरसक प्रयास करते है। इनकी इस सोच पर हंसी तो आती है क्योंकि सच तो सच है और सच कभी छुपता नहीं है। वे पत्रकार जो अपनी कलम को लेकर ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ है वे तो लिखेंगे और पाठक उसे पढ़ेगा भी क्योंकि आज भी लोग सच को खोजते ही रहते है।
रही बात प्रशासन के प्रति पत्रकारों के विरोध कि तो उसकी भी रूप रेखा तय हो चुकी। विधि सम्मत जो भी होगा किया जाएगा। वक्त, जगह और तारीख समय आने पर उजागर हो ही जाएंगी।