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भ्रष्टाचारियों व अपराधियों का गढ़ बनता जिला...
18, Apr 2025 3 months ago

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पत्रकारों पर कैमरों से निगरानी रखने वालों के अमलो में गढ़े जा रहे भ्रष्टाचार के नए आयाम

पुलिस को पत्रकारों के इशुस् पता है, अपराधियों के क्यों नहीं...? सामाजिक पुलिसिंग ढाक के तीन पात

माही की गूंज, संजय भटेवरा

    झाबुआ। जिले में हिटलरशाही प्रशासन व पुलिस की कार्यप्रणाली पर लगातार सवाल खड़े होते नजर आ रहे है। प्रशासनिक अमले में बैठे जिले के शीर्ष अधिकारी जिस कदर अपने आपको कर्तव्यनिष्ठ बताते नहीं थकते तो पुलिस अपने मूल कर्तव्य को छोड़कर सामाजिक सरोकार में व्यस्त होकर सोशल मीडिया व अन्य प्रसार के माध्यमों से सिर्फ वाहवाही ही लूटने में लगी रहती है। दोनों ही शीर्ष अधिकारियों द्वारा अपने छोटे-छोटे कार्यों को इतना महिमा मंडित करके दिखाया जाता मानों इनके अलावा जिले में कोई कुछ कर ही नहीं रहा हो। असल में यह सारी कवायदें अपने सर्विस रिकार्ड में नंबरों की बढ़ोतरी को लेकर किए जा रहे है, इनमें किसी तरह का कोई सामाजिक सरोकार नजर नहीं आता।

    जिस तरह से कलेक्टर, पत्रकारों से अभद्रता और अपमान करते हुए यह कहती है कि, नगर में चारों और कैमरे लगे हुए है कौन क्या करता है हमें सब पता है। मगर मेडम साहीबा को यह नहीं पता कि, उनके अपने अधिनस्तों में कौन कितना भ्रष्टाचारी है। छोटे से छोटे स्तर पर जनपद पंचायतों में बैठे कर्मचारी करोड़ों रूपये का भ्रष्टाचार कर जाते है और मामला उजागर होने के बाद वरिष्ठ जांच की औपचारिकताएं करते नजर आते है। सोचा जा सकता है कि, जब जनपदों का यह हाल है तो फिर तहसील में बैठे भ्रष्ट बागड़ बिल्ले कैसे होंगे, उनसे उपर उठकर जिला मुख्यालय पर बैठे अधिकारियों की स्थिति क्या होगी..?  यह तो भगवान जाने...!

पत्रकारों पर तो नजर रखती है, लेकिन अपने ही अमले के भ्रष्टों पर नजर रखने में चूक क्यों...?

    पिछले दिनों रामा जनपद पंचायत में ऑडिट रिपोर्ट में उजागर हुई गड़बड़ी ने कई सवाल प्रशासनिक तंत्र व उसमें बैठे आला अधिकारियों पर खड़े कर दिए है। मामला छोटा -मोटा भी नहीं है जो दब जाए। 1.90 करोड़ के घोटाले का मामला है। इस बड़े घोटाले में जनपद सीइओ से लेकर लेखापाल, बाबू, कम्प्यूटर ऑपरेटर व उसकी पत्नी के नाम अब तक सामने आ चुके है। महज कंप्यूटर ऑपरेटर व उसकी पत्नी के खाते में ही लगभग 52 लाख रूपये का भुगतान बाले-बाले कर दिया गया। क्या अब कलेक्टर मेडम के वक्तव्य के हिसाब से दोषियों के विरूद्ध केस दर्ज करवाया जाएगा...? अब सवाल यह उठता है कि, पत्रकारों पर नगर में लगे कैमरों से बारीकी से निगरानी रखने और कौन क्या करता है सब पता रखने वाली कलेक्टर साहीबा अपने ही अधिनस्त अमले पर क्यों नजर नहीं रख पा रही है...? क्यों इतना समय लगा कि करोड़ों का भ्रष्टाचार हो गया...? यह भी तय है कि, इतना बड़ा भ्रष्टाचार कोई एक पल में तो नहीं हुआ होगा। इतने बड़े भ्रष्टाचार को अंजाम देने में भ्रष्टों को काफी समय भी लगा होगा। तो फिर प्रशासन को इतना बड़ा गोलमाल होने के बाद ही खबर क्यों लगी...? क्या कलेक्टर मेडम ने केवल नगर में ही पत्रकारों की निगरानी के लिए कैमरे लगाए है...? या फिर वे अपने भ्रष्ट अमले पर भी किसी तरह के कैमरे से निगरानी करती है...?

    यह तो रामा जनपद पंचायत का एक मामला है, अगर ऐसे ही मामले हर जनपद पंचायत में हुए है तो भ्रष्टाचार के आंकड़ें कहां पहुंच जाएगें इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। हालांकि यह सारा खेल आंकड़ों का है कोई ऑडिट में अपनी आंकड़े बाजी का खेल दिखा कर पास हो जाता है तो कोई फैल। रामा जनपद वाले भ्रष्टों का आंकड़ों का खेल फैल हो गया और भ्रष्टाचार उजागर हो गया। हालांकि कुछ भ्रष्ट आंकड़े बाजी में इतने पारंगत होते है कि उन्हे पकड़ पाना नामुमकिन होता है।

    वैसे जिस कलेक्टर भवन में मेडम साहीबा विराजमान है वहां की कहानी भी कुछ अच्छी नहीं है। यह और बात है कि, अधिकारियों ने अपनी आंखें जानबूझ कर मूंद रखी है, क्योंकि हिस्सा तो सबका है। मगर आम जनता तो सब जानती है। आमजन न भी जाने तो दलाल इतने सक्रिय है कि, यह बता देते है कि किस चेंबर में बैठे, किस अधिकारी को कितना लगेगा। दलाल यह भी बताते है कि, सबको बटेगा तो ही काम आगे चलेगा वरना फाइलें धूल खाती रहेगी।

    कुल मिलाकर बात यह है कि, नगर में लगे कैमरों से पत्रकारों पर तो पैनी नजर रखी जाती है लेकिन अपनेे ही अधिनस्तों व उनके कार्यालयों में कोई कैमरा निती मेडम लागू नहीं कर पाई। नतीजा जिले में भ्रष्टाचार की नई इबारत लिखि गई। जिन कैमरों से पत्रकारों पर निगरानी की जाती है और देखा जाता है कि कौन क्या कर रहा है, वैसे ही कैमरे भ्रष्टों के आसपास क्यों नहीं लगाए जाते...? हालांकि प्रशासनिक रिति-निति में यह शामिल है कि, सांप निकलने के बाद लाठी पीटी जाए, ताकि सांप भी न मरे और लाठी भी ना टूटे।

पत्रकारों के इशुस् ढूंढने व सामाजिक पुलिसिंग से फुर्सत हो तो अपराधों पर भी अंकुश लगा लिजिए साहब

    जिले की पुलिस व कप्तान अपराधों से निपटने वाली प्रक्रिया को छोड़कर सीधे तौर पर सामाजिक पुलिसिंग में लगे हुए है। नतीजा आए दिन जिले में कोई न कोई बड़ी घटना सामने आ रही है। माना कि सामाजिक पुलिसिंग जरूरी है, लेकिन वह अपराधों पर अंकुश व शिकंजा कसने के बाद की प्रक्रिया है। पहले तो पुलिस का प्रथम कर्तव्य ही अपराधों व अपराधियों से निपटना है, लेकिन जिले का दुर्भाग्य ही कहें कि यहां आने वाले पुलिस अधीक्षकों में समाज सेवा जाग जाती है। कोई जिले में आते ही जंगलों में प्रकृति प्रेम दिखाता है, तो कोई आदिवासी संस्कृति से प्रेम दिखाता नजर आता है। कोई आदिवासी समाज में कुरितियों के खिलाफ खड़ा हो जाता है, तो कोई जिले की संस्कृति को अपने ही तरीके से किताबें छपवा कर परोस जाता है। मगर इन सब के कार्यकाल में जिले में अपराधों पर अंकुश कभी नजर नहीं आता है।

    यही प्रक्रिया एक बार फिर दोहराई जा रही है। अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए सामाजिक पुलिसिंग की जा रही है। मगर अधिकारी यह भूल क्यों जाते है कि, अपराधी कभी सामाजिक नहंी हेाता, अपराधी तो अपराधी होता है और अपराधों को रोकना व अपराधियों को पकड़कर सजा दिलवाना यह पुलिस का प्रथम कर्तव्य है। सामाजिक पुलिसिंग का असर यह देखने को मिल रहा है कि, जिले में अपराधों पर कहीं अंकुश लगता नजर नहीं आ रहा है, स्थिति ढाक के तीन पात ही साबित हो रही है।

    चोरी, डकैती, ठगी जैसे मामले आए दिन जिले में देखने को मिल रहे है। पिछले दिनों जिले के पिटोल कस्बे में जैन मंदिर में चोरों ने चोरी को अंजाम दिया। चोर मंदिर से भगवान की बेसकिमती प्रतिमा चोर ले उड़े। रायपुरिया क्षेत्र में फर्जी कंपनी की ठगी का मामला भी सामने आया। इसमें कई महिलाओं से लाखों रूपये की ठगी को अंजाम देकर ठग फरार हो गए। कुछ माह पूर्व जिला मुख्यालय पर ही नकली बैंक का संचालन होता पाया गया था। हालांकि इस मामले में कुछ गिरफ्तारी जरूर हुई है। जिले में आए दिन कुछ न कुछ घटना-दुर्घटना सामने आ रही है। दिन दहाड़े गुंडों के हमले देखने को मिल रहे है। खुलेआम गोलियां चल रही है। ऐसे कई अपराध जिले में लगातार देखने को मिल रहे है और अपराधियों में पुलिस का खौफ कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा है।

    अब जिला मुख्यालय पर ही सोने-चांदी की दुकान में हुई लाखों की चोरी ने जिले में पुलिसिया कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े कर दिए है। जिला मुख्यालय के मुख्य बाजार में इस तरह की घटना ने सबको सक्ते में डाल दिया है। व्यापारी अपनी व कारोबार की सुरक्षा को लेकर अब चिंतित दिखाई दे रहे है। सोने-चांदी की दुकान में हुई इस घटना ने पुलिस की रात्रि गश्त पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।

    जब पुलिस अधीक्षक रोज-रोज सामाजिक पुलिसिंग के तहत गांव-गांव भटक रहे है, ग्राम सुरक्षा समितियों की बैठके ले रहे है, कई तरह के शिविर लगाकर लोगों को समझाईश दे रहे है, अपराधों से बचने-बचाने की हिदायतें दे रहे है। आदिवासी समाज की कुरितियों को खत्म कर उनके शादी-ब्याह में हिस्सा ले रहे है तो आखिर फिर यह अपराध जिले में कैसे हो रहे है...? इसका सीधा सा मतलब यह है कि. साहब की सामाजिक पुलिसिंग काम नहीं कर रही है।

    वैसे ये वही साहब है जिन्होने पत्रकारों की छोटी सी समस्या के समाधान में यह धमकी दे डाली थी कि... समझ जाएं वरना सबके इशुस् है। मगर स्थिति और कानून व्यवस्था को देखकर यह लग रहा है कि, शायद साहब की जिले में अपराधियों की नब्ज पर पकड़ कमजोर है और उन्हे अपराधियों के इशुस् पता नहीं है। अगर पत्रकारों के इशुस् ढूंढने व सामाजिक पुलिसिंग से फुर्सत मिल गई हो तो अपराधों पर भी अंकुश लगा लिजिए साहब...! और मुख्यालय पर लगे जिन केमरो की बात करते हो उनकी स्क्रीन अच्छे से साफ कर स्क्रीन में देख अपराधियो को पकडने का कार्य करे साहब...!


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