माही की गूंज । संजय भटेवरा
झाबूआ। माँ शब्द में एक माँ होता है और मामा शब्द में दो मां यानी जो माँ से ज्यादा प्यार दे वो मामा भारतीय संस्कृति में मां और मामा के रिश्ते का अलग ही महत्व है। वैवाहिक संस्कार में कुछ परंपराए ऐसी है जो मामा के बिना संभव नहीं है और मामा संबोधन अपने आप में आत्मीयता का बोध कराने वाला है जिसको एक बार मामा बोल दिया उससे आजीवन आत्मीयता का संबंध बन जाता है।
ऐसे ही एक शक्शियत थे मामा बालेश्वर दयाल दीक्षित मामाजी जो आदिवासी समाज में न केवल आज भी मामाजी के नाम से विख्यात है। वरन आदिवासी समाज में भगवान का दर्जा प्राप्त कर चुके हैं। राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश के आदिवासी अंचल उनकी कर्मभूमि रहे और वर्ष में दो बार मामाजी के बामनिया स्थित आश्रम में उनके अनुयायी उन्हें नमन करने जरूर आते हैं। बारिश के बाद फसल आने पर फसल का पहला अंश मामाजी को ही चढ़ाया जाता है और मामाजी की पुण्यतिथि 26 दिसंबर को बड़ी संख्या में उनके अनुयायी उन्हें श्रद्धांजलि देने पहुंचते हैं। इनमें से कई तो सैकड़ो किलोमीटर की दूरी पैदल तय करके पहुंचते हैं। जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चे भी शामिल होते हैं। जिससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है की इनके अनुयायी कितनी अपार श्रद्धा मामाजी के प्रति आज भी रखते हैं। मामाजी का जन्म 5 सितंबर 1906 को ग्राम निवाड़ी जिला इटावा में हुआ था और उनका देहांत 26 दिसंबर 1998 को बामनिया आश्रम में ही हुआ। मामाजी के देहांत के बाद आश्रम में ही उनकी समाधि बनाकर प्रतिमा स्थापित की गई। जो कि आज मामाजी के अनुयायी वर्ग के लिए श्रद्धा का केंद्र है। अंचल के कई परिवारो में मामाजी की तस्वीर की पूजा की जाती है। बच्चों के बीमार होने पर मामाजी के नाम से धागा तक बांधा जाता है। यही नहीं किसी भी नए कार्य की शुरुआत मामाजी के नाम का नारियल फोड़कर ही की जाती है। राजस्थान में मामाजी के नाम से विद्यालय और महाविद्यालय भी है। 1931 में सहित चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु के बाद उनकी मां से मिलने भाभरा गांव यह सोचकर आए कि, उनकी मां अकेली होगी यहां उनकी मुलाकात चंद्रशेखर आजाद के बचपन के साथी भीमा से हुई और भीमा के साथ भाभरा रहने का निर्णय लिया। 1932 में थांदला में एक स्कूल में हेड मास्टर की नौकरी की और यहां आ गए। धीरे-धीरे जिले के आदिवासी अंचल में इतना रम गए की यही अपना घर बना लिया और पूरा जीवन बिता दिया। यहां उन्होंने जन जागृति के साथ आदिवासी समाज में राष्ट्र प्रेम की भावना जगाई। आदिवासी समाज में आई इस जन जागृति को मामाजी ने मुख्य धारा की राजनीति से जोड़ा। जिसके फल स्वरुप आजादी के बाद हुए पहले आम चुनाव में इस पूरे क्षेत्र में मामाजी से जुड़े कार्यकर्ता सांसद एवं विधायक चुने गए। इनमें धार जिले की जमुनादेवी भी थी जो बाद में मध्य प्रदेश की उपमुख्यमंत्री भी बनी। राजस्थान में जशोदा बहन विधानसभा में जाने वाली पहली महिला विधायक थी। सन 1971 में जब पूरे देश में इंदिरा गांधी की लहर थी तब बांसवाड़ा में मामाजी के सहयोगी 45 हजार वोट से जीते थे। मामाजी ने समाजवादी पार्टी को इन आदिवासी क्षेत्रों में पहचान दिलाई थी। मामाजी ने सैकड़ो आंदोलन छेड़े जो आम लोगों की जिंदगी के दैनिक मुद्दों से जुड़े थे और अन्य नेताओं से अलग वे आम लोगों के दिलों से जुड़े थे। यही कारण है कि, आजादी के बाद अधिकांश नेता जहां कुर्सी के पीछे भाग रहे थे तब मामाजी सत्ता से दूर आम लोगों के मुद्दे को लेकर आंदोलनरत थे। इतने बड़े इलाके और इतने लंबे समय तक आंदोलन चलाने वाले मामाजी ने कुछ भी निजी संपत्ति एकत्रित नहीं की। बामनिया में एक भील आश्रम बनाया और चंदे से वहां रहने लगे थे। सादे सूती कपड़े, सादा रहन-सहन और बहुत ही आत्मीय व्यवहार उनकी पूंजी थी। अंतिम समय में उनके अनुयायियों ने आग्रह किया कि, अपना इलाज किसी बड़े अस्पताल में जाकर करवाए, परंतु उन्होंने इससे इंकार कर दिया और अंतिम सास तक इस क्षेत्र में ही रहे ।
मामाजी भले ही भौतिक स्वरूप में आज नहीं है, लेकिन एक दिव्य एवं आलोकिक शक्ति के रूप में आज भी उनके श्रद्धालुओं के मन में बसे हैं। उनका अपना एक बहुत बड़ा अनुयायी वर्ग है जो उन्हें भगवान के बराबर दर्जा देता है।
मामाजी की पुण्यतिथि के अवसर पर माही की गूंज परिवार की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि...
अनुयायी मामाजी को भगवान का दर्जा दे कर मामाजी का हाथ में फोटो लेकर अपनी बामनिया तक की यात्रा पेदल करते।