माही की गूंज, झाबुआ।
1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाता है और मजदूरी का दंश झाबुआ जिला वर्षों से झेलता आ रहा है। यहां के श्रमिक अपना श्रम बेचने देश के विभिन्न हिस्सों में जाते हैं। आजादी के बाद हुए लगभग सभी चुनावो में नेतागण रोजगार देने का वादा करते आए हैं लेकिन स्थिति आज भी वैसी ही बनी हुई है। यहां पूरे के पूरे गांव खाली हो जाते है। याद कीजिए कोरोना का वो भयानक मंजर जब जिले के श्रमिकों ने बड़े-बड़े हाईवे को पैदल ही नाप दिया था। देश के कई हिस्सों से श्रमिक लॉकडाउन लगने के बाद पैदल-पैदल ही अपने घरों के लिए निकल पड़े थे। सरकार को इन मजदूरों की याद वोट डलवाने पर ही आती है। वर्तमान में हुए दो चरणों के लोकसभा चुनाव में गत चुनाव की अपेक्षा कम हुए मतदान ने सरकार के साथ ही राजनीतिक पार्टियों के माथे पर भी चिंता की लकीर खींच दी है। एक तरफ प्रशासन की कोशिश है कि, मतदान प्रतिशत बड़े लेकिन मतदान प्रतिशत का कम होना प्रशासन के दावे और हकीकत में अंतर पैदा कर रहा है। वहीं राजनीतिक दल अपने-अपने गणित लगाकर मतदान को अपने हित में बतलाकर आगमी चरणों के लिए मनोवैज्ञानिक बढत प्राप्त करने की कोशिश कर रहे हैं।
बांधों रोटा... चालो कोटा
वैसे तो कोटा एजुकेशन का बड़ा हब है, लेकिन झाबुआ जिले का कोटा से एक अलग संबंध है श्रम का। यहां के श्रमिक बड़ी संख्या में अपना श्रम बेचने राजस्थान के कोटा और गुजरात के सूरत शहर में लंबे समय से जाते रहे हैं। कई लोग तो इन शहरों में स्थाई रूप से बस भी चुके हैं। यहां अमूमन होली के पश्चात पलायन प्रारंभ हो जाता है। जो मानसून के आगमन तक जारी रहता है। यहां एक कहावत भी बहुत ही अधिक प्रचलित है बांधो रोटा और चालो कोटा यानी अपना राशन लेकर काम के लिए कोटा चलो।
मनरेगा योजना
केंद्र सरकार ने मनरेगा योजना लागू कर रखी है, जिसमें प्रत्येक परिवार को जॉब कार्ड के माध्यम से निश्चित मजदूरी देने का प्रावधान है। लेकिन अन्य योजनाओं की तरह ही यह योजना भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ी हुई है और स्थानीय जनप्रतिनिधियों के लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गी। कहते हैं कि, मजदूर का पसीना सूखने के पहले उसकी मजदूरी मिल जाना चाहिए लेकिन शासकीय अन्य योजनाओं की तरह भी इसमें भी लेट लतीफे, भाई-भतीजा वाद और भ्रष्टाचार होता है। मजदूरों को काफी समय तक उनका पैसा नहीं मिलता है, पैसा मिलता है तो उसमें कमीशन देना पड़ता है और जनप्रतिनिधि अपने चहेतो को उपकृत करने में लगे रहते हैं। जिससे वास्तविक मजदूर जिसको मजदूरी करके रुपए की जरूरत होती है वो इस योजना में मजदूरी करने के बजाय कोटा और सूरत जाकर मजदूरी करना अच्छा समझता है। उसे वहां पैसे भी ज्यादा मिलते हैं और समय पर भी मिलते हैं।
कैसे बढ़ेगा मतदान प्रतिशत!
रतलाम सीट पर चौथे चरण में 13 मई को मतदान होना है और वर्तमान में जिले के कई गांव खाली है यानी मजदूरों के लिए पलायन पर है। ऐसे में प्रशासन के लिए इन मजदूरों को मतदान के लिए अपने गांव में लाना बड़ी चुनौती है। अब देखना है कि, प्रशासन इस चुनौती को कैसे पार पाता है।
मतदाता जागरूकता अभियान के अंतर्गत कई तरह की गतिविधियां आयोजित की जा रही है। शिविर के माध्यम से मतदान की शपथ दिलाई जा रही है। मैदानी कार्यकर्ताओं को जिम्मेदारी तय की जा रही है। लेकिन उसके बाद भी बड़ा सवाल है कि, क्या मतदान प्रतिशत बढ़ पाएगा...?