माही की गूंज, संजय भटेवरा।
झाबुआ। एक स्वस्थ लोकतंत्र में विपक्ष का उतना ही महत्व रहता है जितना सत्ता पक्ष का रहता है। प्राचीन काल में तो सब योद्धा लड़ते थे तो विपक्षी योद्धा का हथियार गिर भी जाता था तो उसे उठाने का पूरा मौका देते थे और हथियार उठाने के पश्चात ही वार किया जाता था, यानी दोनों योद्धाओं के लिए समान अवसर होते थे। प्राचीन काल में सत्ता के लिए संघर्ष हथियार के बल पर होते थे, लेकिन वर्तमान में सत्ता के लिए संघर्ष बाबा साहेब अंबेडकर के संविधान अनुसार जनमत के बल पर होने थे। तरीका भले बदल गया है लेकिन विपक्षी के सम्मान की परंपरा और विपक्षी को समान अवसर दिया जाना आज भी कायम है। संविधान के अनुसार अपनी बात रखने का हक सभी को है। वर्तमान में जारी दिल्ली की सत्ता संघर्ष अपने चरम पर है। यहां सह और मात का खेल खेला जा रहा है। विपक्षी पर हर वो चाल चली जा रही है जो राजनीतिक रूप से भले ही सही हो लेकिन नैतिक रूप से सही नहीं कही जा सकती है। कोई भी बुद्धिजीवी या राजनीतिक पंडित इस बात को कभी भी सही नहीं कहेगा कि, विपक्षी उम्मीदवार को मैदान से ही हटा दिया जाए, इसे स्वस्थ लोकतंत्र कह सकते हैं क्या...?
देश के दो सबसे खूबसूरत व सफाई में नंबर वन का ताज हासिल कर पूरे देश में चर्चित शहर सूरत व इंदौर इन दिनों भी चर्चा में है, लेकिन यह चर्चा राजनीतिक है। दोनों ही शहरों में चुनाव के एन वक्त ऐसी चाल चली गई कि, विपक्षी दल कांग्रेस हक्का-बक्का रह गई। जब तक कांग्रेस कुछ समझ पाती, बाज़ी उनके हाथ से निकल चुकी थी। पहले बात करें सूरत की जहां कांग्रेस उम्मीदवार ने अपने नामांकन फार्म में जानबूझकर गलती की ताकि उनका फॉर्म निरस्त हो जाए और भाजपा का यह ऑपरेशन सफल रहा। कांग्रेसी उम्मीदवार का फॉर्म निरस्त होने के बाद अन्य निर्दलीय प्रत्याशियों के नामांकन फॉर्म भी वापस करवा लिए गए। इसके लिए जाहिर सी बात है कि शाम, दाम, दंड और भेद आदि सभी नीतियों को अपनाया गया होगा। क्योंकि राजनीति की थोड़ी भी समझ रखने वाला व्यक्ति यह तो जानता ही है कि, नामांकन फॉर्म वापस किन परिस्थितियों में लिया जाता है। कोई केवल शोक या मनोरंजन के लिए तो इतने बड़े चुनाव के लिए फॉर्म नहीं भरता है। भाजपा अपनी रणनीति में कामयाब रही और सूरत के सांसद निर्वाचन निर्विरोध हो गया। कांग्रेस इस सदमें से ऊबर पाती उससे पहले ही सातवीं बार स्वच्छता का सिरमौर बने इंदौर से उनके लिए एक बुरी खबर आ गई। जहां उनके द्वारा घोषित प्रत्याशी ने एन वक्त पर अपना नामांकन फॉर्म वापस लेकर मत पत्र मशीन से हाथ के पंजे के निशान को गायब कर दिया और सत्ता पक्ष का गमछा पहन लिया। हालांकि यहा सूरत जैसी निर्विरोध की स्थिति तो नहीं बनी लेकिन राजनीतिक पंडितों को इसकी चर्चा के लिए अवश्य मजबूर कर दिया और राजनीतिक पंडित इस प्रश्न का उत्तर खोजने में लगे हैं कि, भाजपा की यह रणनीति क्या स्वस्थ लोकतंत्र के लिए उचित है...?
आखिर क्या जरूरत थी इसकी..?
पंडित दीनदयाल उपाध्याय, कुशाभाऊ ठाकरे, राजमाता सिंधिया और अटल बिहारी वाजपेई के आदर्शों पर चलने का दावा करने वाली भाजपा की आखिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि, स्पष्ट दिखाई दे रही जीत को लेकर भी वह संयम नहीं दिखा पाई और हड़बड़ाहट या अति उत्साह में लोकतंत्र का ही मखौल उड़ा दिया। इंदौर लोकसभा क्षेत्र से श्रीमती सुमित्रा महाजन अजय योद्धा रही और लगातार आठ चुनाव जीते। यही नहीं गत लोकसभा चुनाव में यहां भाजपा के शंकर लालवानी ने 65.57 फ़ीसदी मतदाताओं के मत प्राप्त किए थे और लगभग 5 लाख से ज्यादा के अंतर से अब तक की सबसे बड़ी विजय प्राप्त की थी। पिछले वर्ष हुए विधानसभा चुनाव ने इस संसदीय क्षेत्र की सभी 9 सीटे बड़े अंतर से जीती थी। पिछले 25 वर्षों से स्थानीय निकाय के चुनाव में भाजपा का महापौर चुना जा रहा है। अधिकतर पार्षद भी भाजपा के ही चुने जा रहे हैं।
रही सही कसर पिछले दिनों गत चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े पंकज संघवी, विधायक रहे संजय शुक्ला सहित अन्य कांग्रेस के अनेक नेताओं ने भाजपा में शामिल होकर कर दी। भाजपा के लिए मैदान पूरी तरह साफ था, भाजपा के शंकर लालवानी की जीत का संदेह किसी को भी नहीं था, फिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि भाजपा को यह दाव खेलने की।
क्रिकेट की भाषा में भारत-पाकिस्तान का मुकाबला बराबरी का माना जाता है, लेकिन जब मुकाबला ऑस्ट्रेलिया और केन्या के बीच हो तो मैच निरस हो जाता है। ऐसे में मैच में भी अगर ऑस्ट्रेलिया, केन्या के कप्तान को बाउंसर से चोटिल कर दे तो इसे खेल भावना नहीं कहा जा सकता है।
अब कैसे बढ़ेगा मतदान प्रतिशत
एक तरफ़ा जीत की संभावना को लेकर इंदौर का चुनाव वैसे भी निरस था और पर्चा वापसी के बाद बचा-कूचा उत्साह भी मतदाताओं का समाप्त हो गया है। एक तरफ प्रशासन वो सारी कवायदो में जुटा है जिससे मतदान प्रतिशत बड़े और लोग, लोकतंत्र के इस महायज्ञ में अपनी आहुति दे। लेकिन इस घटनाक्रम के बाद इंदौर का मतदान प्रतिशत बढ़ाना प्रशासन के लिए लोहे के चने चबाने जैसा साबित होगा। हालांकि कांग्रेस ने इस घटना के बाद कहा है कि, वो नोटा के लिए लोगों को प्रेरित करेंगे, तो क्या इस बार नोटा रिकॉर्ड बनाएगा...? लोगों को नोटा के लिए प्रेरित करना इतना आसान भी नहीं है।
बरहाल इस पूरे घटनाक्रम के बाद भाजपा की जीत का उत्साह भी उतना नहीं रहेगा क्योंकि खेल में जितने का मजा भी तभी आता है जब विपक्ष टक्कर का हो अकेले दौड़कर प्रथम स्थान पर आना कोई मायने नहीं रखता है।
चुनाव, लोकतंत्र की आत्मा है, चुनाव प्रणाली में दखल लोकतंत्र की आत्मा पर चोट है। निष्पक्ष, पारदर्शी, सौहार्दपूर्ण और भय रहित चुनाव प्रक्रिया से ही लोकतंत्र का असली चेहरा सामने आता है। इंदौर की घटना के बाद देश में एक नई बहस जन्म ले चुकी है और इस बहस का जवाब हमें ही ढूंढना होगा...।