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शत्रुंजय तीर्थ की नवाणु यात्रा कर लौटें तपस्वियों का निकला वरघोड़ा
13, Jan 2023 2 years ago

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थांदला की धरती पर बच्चें जन्म से संस्कारित- जैनाचार्य मतीचंद्र सागर जी 

माही की गूंज, थांदला। 

        जैन धर्म में शाश्वत तीर्थ यात्रा को मोक्ष कल्याणकारी माना गया है ऐसे में हर किसी के जीवन का एक लक्ष्य जैन तीर्थ स्थलों की यात्रा का रहता ही है। थांदला नगर के बच्चों में भी जन्म से धर्म के संस्कार है जिससे वह तप व यात्रा का महत्व समझते हुए तप युक्त धार्मिक तीर्थ की यात्रा करता है। उक्त आशीर्वचन पूज्य आचार्य श्री अशोकसागर सुरीश्वरजी मा. सा. के शिष्य आचार्य श्री मतीचंद्र सागरजी म.सा. ने आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के मोक्ष कल्याणक शत्रुंजय महातीर्थ पर एकासन तप की आराधना के साथ नवाणु यात्रा एवं दो दिन तक निर्जल चौविहार उपवास कर छठ यात्रा पूर्ण कर लौटें किशोर तपस्वी जीनल चंचल भंडारी, दीक्षा नितेश पोरवाल, वेदांत ललित मोदी, सुरभि ऋषभ लुणावत, साक्षी संजय लोढ़ा व  दीपाली रविन्द्र मोदी के तप अनुमोदना में निकलें विशाल वरघोड़े में आये सभी धर्म श्रद्धालुओं से धर्म सभा स्थल पर कही। पूज्य गुरुभगवंत ठाणा 9 के सानिध्य में तपस्वियों का वरघोड़ा नगर के मुख्य मार्गों से निकला। जहाँ अन्य समाजजनों ने भी तपस्वियों का बहुमान का लाभ लिया वही स्थानीय मेट्रो परिसर में तपस्वियों के पग प्रक्षालन का कार्यक्रम रखा। जिसमें सकल संघ व परिवार जनों ने तपस्वियों के पग प्रक्षालन कर उन पर फूलों की वर्षा करते हुए तप की अनुमोदना करते हुए उनको शुभकामनाएं दी। इस दौरान राजस्थान, गुजरात मध्यप्रदेश सहित अन्य प्रांतों के गुरुभक्तों व सकल संघ के स्वामीवत्सल्य का लाभ आनन्दीलाल शैतानलाल पोरवाल, कनकमाल मिश्रीमल भंडारी एवं अनोखीलाल सागरमल मोदी परिवार द्वारा लिया गया।

यह है शत्रुंजय तीर्थ यात्रा का इतिहास व महत्व

        अहिंसा व तपस्या प्रधान जैन धर्म के आदि करने वालें प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ ऋषभदेव के मोक्ष कल्याणक अतिशय क्षेत्र पालीताना शत्रुंजय महातीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ पर साधना करते हुए अनन्त आत्माओं ने मोक्ष प्राप्त किया है। कहते है कि, भगवान आदिनाथ ऋषभदेव ने इस तीर्थ भूमि को 99 बार पावन किया है तभी से नवाणु यात्रा का जैन धर्म में बहुत महत्व होता है। अत्यंत कठिन इस यात्रा में शक्ति अनुसार उपवास एकासन तप के साथ संयमी जीवन पालन करते हुए नंगे पैर 99 बार शिखर तक जाया जाता है, जो तलहटी से करीब 220 फिट ऊँचाई पर स्थित होकर तपस्वी यात्रियों को 3950 सीढ़ियों की चढ़ाई करनी पड़ती हैं।



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