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चुनाव छोटा लेकिन धमाका बड़ा...
07, Oct 2022 2 years ago

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भाजपा की स्थिति उस विद्यार्थी की तरह हो गई जो परीक्षा में मेरिट में आने का तो दावा करता है पर उसे पासिंग अंक पर ही संतोष करना पड़ता है!

क्या मुख्यमंत्री अब पंच व सरपंच के चुनाव में भी आयेगे वोट मागने...?

माही की गूंज, संजय भटेवरा।

        झाबुआ/अलीराजपुर। जीवन में पहली सीढ़ी बहुत महत्वपूर्ण होती है और लोकतंत्र की पहली और महत्वपूर्ण सीढ़ी है पंच एवं पार्षद।

        हाल ही में हुए नगरीय निकाय के चुनाव, छोटे और स्थानीय चुनाव थे, लेकिन मतदाताओं ने बड़े संदेश के साथ बड़ा धमाका किया है। यह चुनाव उन बड़े नेताओं को भी आईना दिखा गया, जो यह समझते थे लोकतन्त्र मे उनका सिक्का चलता है। यही नही मुख्यमंत्री शिवराजसिहं चौहान की सभा होने वाले वार्ड में भी पार्टी अधिकृत पार्षद प्रत्याशियो की करारी हार होना, यह दर्शाता है कि, हर चुनाव में जनता, मुख्यमंत्री का चेहरा देखकर वोट नहीं करती है। इन चुनाव में पार्टी के चुनाव चिन्ह पर प्रत्याशियों की छवि भारी पड़ी है। यही कारण है कि, झाबुआ-अलीराजपुर जिले के  7 नगरीय निकाय चुनावों में कई बड़े चेहरे और पार्टी का चुनाव चिन्ह लेकर लड़ने वालों को जमीनी पकड़ वाले गुमनाम प्रत्याशियों ने घर बिठा दिया।

        निश्चित रूप से ये चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाने वाले छोटे चुनाव होते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने प्रदेश में होने वाले हर छोटे-मोटे चुनाव को अपनी सरकार की प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा। छोटे-छोटे चुनाव में मुख्यमंत्री और सत्तारूढ़ पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव स्तर तक के नेताओं का गली-गली में घूमना यह स्पष्ट दर्शाता है कि, पार्टी का अपने स्थानीय नेताओं पर भरोसा नहीं है...! विश्व की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली पार्टी के पास वार्ड का चुनाव जिताकर ला सकने वाले नेता नहीं है या फिर पार्टी को यह लगता है कि, वह स्थानीय नेताओं के दम पर वार्ड तक का चुनाव नहीं जीत सकती है।

        स्थानीय चुनावो में मुख्यमंत्री के प्रचार को लेकर आम लोगों में मिश्रीत प्रतिक्रिया  सामने आ रही है। कई लोगों का मानना है कि, हर चुनाव में यही कहा जा सकता है कि, भाजपा का ग्राफ गिरा है, और जहां पार्टी अधिकृत प्रत्याशी जीते हैं वहां पार्टी से ज्यादा व्यक्तिगत छवि भारी पड़ी है। यही कारण रहा है कि, पार्टी के अधिकृत कई बड़े चेहरों को जनता ने नकार दिया।

चुनाव तो केवल बहाना है मुझे आपसे मिलने आना था

         मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान का यह कथन लगभग सभी सभाओं में आम जनता से यह कहना कि, “चुनाव तो केवल बहाना है मुझे आपसे मिलने आना था” यह जुमला आम जनता को पसंद नहीं आया। मुख्यमंत्री के विरोधी अब ये कटाक्ष कर रहे हैं कि, मुख्यमंत्री, पंच और सरपंच के चुनाव में कब प्रचार करने आ रहे हैं...? क्या मुख्यमंत्री अब पंच और सरपंच के लिए भी वोट मांगेंगे...?

संगठन पर बागी हुए हावी

         अपने आप को अनुशासित पार्टी कहने वाली भाजपा में इस बार सबसे ज्यादा बगावत देखी गई है। यहां मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस का नहीं था बल्कि भाजपा और भाजपा के बागियों के बीच था। पार्टी संगठन तमाम कोशिशों के बावजूद बागियों को मनाने में असफल रहा या यू कहे की पार्टी संगठन ने जनाधार वाले नेताओं को टिकट न देकर अपने चहेतों को खुश करने का प्रयास किया और मुंह की खाना पड़ी। अब इन्हीं निर्दलीय जो जीत कर आए हैं पार्टी उन्हे पुनः अपना बनाने का प्रयास करेगी। शिवराजसिंह चौहान और नरेंद्र मोदी के चेहरे को देखकर लोग वोट नहीं करते है बल्किं स्थानीय चुनाव में स्थानीय मुद्दे और स्थानीय चेहरे ही प्रमुख होते हैं।

         भाजपा भले ही यह दावा कर रही है कि, झाबुआ जिले के चारों निकाय में उसका बोर्ड बन जाएगा लेकिन उनके पार्षदों की संख्या कम ही हुई है। यानी भाजपा का ग्राफ गिरा ही है। वह भी उस स्थिति में जब जिले में कांग्रेस को लगभग वॉक ओवर दे ही दिया था। कांग्रेस की और से न तो कोई बड़ा नेता प्रचार के लिए पहुंचा और न ही संगठन की ओर से उन्हें सहयोग मिला। विकल्पहीनता के कारण भी भाजपा को फायदा मिला। बड़े नेताओं का चुनावी प्रचार तथा संगठन के माइक्रो मैनेजमेंट के बावजूद जनता ने स्थानीय नेताओं को उनकी छवि के आधार पर वोट दिए। यही कारण है कि, बड़ी संख्या में निर्दलीय पार्षद जीत कर आए हैं, इसलिए यह जीत भाजपा की जीत नहीं है बल्कि स्थानीय नेताओं की जीत है। कमजोर विपक्ष पर जीत है, बिखरे हुए विपक्ष पर जीत है और सबसे बड़ी बात यह स्थानीय नेताओं के व्यवहार की जीत है। भाजपा इसे अपनी जीत के रूप में प्रचारित न करें। लेकिन अलीराजपुर और सैलाना जो कि, रतलाम संसदीय क्षेत्र के  अंतर्गत ही आते हैं, जहां मुख्यमंत्री ने अंतिम समय तक घड़ी देखते हुए प्रचार किया था, वहां की हार भाजपा की हार है। क्योंकि यहां तमाम दाव पेंच लगाने के बाद भी भाजपा अपना बोर्ड नहीं बना सकने की स्थिति में है। यहां कांग्रेस की भी जीत नहीं है यहां स्थानीय नेतृत्व की जीत है जो लगातार जमीनी स्तर पर पकड़ बनाए रखते हुए आम जनता का भरोसा जीतने में सफल हुए हैं।

         इस चुनाव को आगामी विधानसभा चुनाव का लिटमस टेस्ट माना जा रहा है और भाजपा को लेकर यह कहां जा सकता है कि, पार्टी भले ही इसे अपनी जीत प्रचारित कर रही है लेकिन कांग्रेस का आत्मसमर्पण, जनता के पास विकल्प का अभाव और स्थानीय मुद्दे को लेकर भाजपा इसे अपनी जीत बता रही है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। स्थानीय चुनाव में प्रत्याशी की व्यक्तिगत छवि हावी होती है और इस चुनाव में भी वही हुआ है, प्रत्याशी की व्यक्तिगत छवि पार्टी के चुनाव चिन्ह पर भारी पड़ी है। इस चुनाव में भाजपा की स्थिति उस विद्यार्थी की तरह हो गई है जो परीक्षा में मेरिट में आने का दावा करता है और उसे पास होने के अंक पर ही संतोष करना पड़ता है। इसी प्रकार का दावा भाजपा ने 2018 में किया था, जब वह ‘‘अब की बार दो सौ पार’’ के नारे के साथ विधानसभा चुनाव में उतरी थी, लेकिन फिर भी वह सत्ता के आंकड़े तक भी नहीं पहुंच पाई थी।

         बहरहाल अब 2023 के चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। सरकार का हर कदम 2023 के चुनावी लाभ-हानि के आकलन के बाद ही उठेगा, हर योजना की कसौटी 2023 का चुनाव होगी। लेकिन क्या भाजपा अपनी जमीनी और वरिष्ठ कार्यकर्ताओं का विश्वास जीत पाएगी...?

22 वर्षो का पुराना सपना भी भाजपा नही कर पाई पुरा

        वर्षो से पार्टी से जुड़े वरिष्ठ नेता वर्तमान में भाजपा से दूरी बनाते हुए घर बैठ चुके हैं, सत्ता के नशे में भाजपा इन नेताओं की अनदेखी कर रही है। शहरी क्षेत्रों में भले ही भाजपा जीत का दावा कर रही है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार के प्रति नाराजगी देखी जा सकती है। यही नहीं ठोस विकल्प का अभाव भी सरकार के लिए फायदेमंद साबित हो रहा हैं। जहां जनता को विकल्प मिल रहा है, वहां जनता भाजपा और कांग्रेस दोनों को नकार रही हैं, जिसका ताजा उदाहरण जिला पंचायत झाबुआ के वार्ड क्रमांक 9 का रहा है। जिसमें जयस समर्थित चुनावी रणक्षेत्र में नई नवेली लड़की रेखा निनामा ने कांग्रेस और भाजपा के दिग्गजों को धूल चटाते हुए न केवल बड़ी जीत हासिल की, बल्कि भाजपा के जिला पंचायत अध्यक्ष बनाने के 22 वर्षों पुराने सपने को भी चकनाचूर कर दिया।

        निश्चित रूप से ये चुनाव छोटे चुनाव कहलाते हैं, लेकिन राजनीतिक पकड, जनता के मूड और सरकारी योजनाओं की जमीनी हकीकत से रूबरू करवाते हैं वही बड़े चुनावो की दशा और दिशा निर्धारित करते हैं। इन चुनावों को लेकर यही कहा जा सकता है कि, चुनाव भले ही छोटे है लेकिन इनके मायने बहुत बड़े होते हैं और ये चुनाव ही नेतृत्व की नई पीढ़ी तय करते हैं।


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