जीवन में भक्ति होने पर ही भगवद् दर्शन सम्भव- आचार्य डॉ. देवेन्द्र शास्त्री
माही की गूंज, बनी।
आज पात्रता ज्यादा मूल्यवान है। पुत्र मोह से ज्यादा पात्र व्यक्ति का मूल्य अधिक है। आचार्य श्री ने महाभारत में ध्रतराष्ट्र का व्रतांत सुना रहे थे। उन्होंने कहां कि, धृतराष्ट्र पुत्र मोह से पड़ गए थे। यदि जीवन में कोई व्यसन करना है तो वह प्रभु प्रेम, भक्ति प्रेम का व्यसन करें। प्रभु की भक्ति से ही सुख, समृद्धि और शांति प्राप्त होगी। भाईश्री ने कहा कि मानव शरीर कृष्ण की वीणा के समान है। इससे भक्तिरस, प्रेमरस निकलना चाहिए।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे..., हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे..., जय श्री कृष्ण...। पेटलावद अंचल के ग्राम रायपुरिया मे झाबुआ रोड़ स्थित विशाल कथा पांडाल में इन दिनों ये मंत्र गूंज रहे हैं। सोलंकी परिवार मोहनकोट वालों द्वारा आयोजित श्रीमद्भागवत भक्ति रस महोत्सव के दूसरे दिन शुक्रवार को श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जुटी। व्यास पीठ से प्रवचन करते हुए भागवत भूषण आचार्य डॉ. देवेन्द्र शास्त्री ने श्रद्धालुओं को जीवन के प्रयोजन का मर्म बताया। कहा कि, भागवत कथा श्रवण मनोरंजन नहीं, मन का कल्याण है। जीवन ही नहीं हर चीज के होने का प्रयोजन है। जीवन का प्रयोजन क्या है, यह समझ में जाए, तो उसी दिन से आदमी लक्ष्य की पूर्ति में लग जाए। संतों की वाणी सत्य है, यह मानना श्रद्धा की बात है। मानो तो देव नहीं तो पत्थर। यह सब मानने वाले की श्रद्धा का मामला है। पत्थर में भगवान जाते हैं, भक्तों के भाव से। वक्ता के मुख से श्रोताओं का भाव बोलता है। इसमें विद्वता का कोई मतलब नहीं। बस! व्यास पीठ पर बैठने वाला शुद्ध पवित्र रहे।
नदी की धारा के समान प्रवाहमान रहिए
भागवत कथा में आचार्य श्री शास्त्री ने कहा कि, जीवनचलने का नाम है। चरैवेती चरैवेती। नदी की तरह बहते रहो। स्वस्थ रहोगे। एक बार ब्रह्मा जी को जिज्ञासा हुई कि कमल के फूल के मूल में क्या है। तब वे कमल की नली से नीचे उतरे। इसका तात्पर्य चिंतन-मनन से है। अगर कुछ जानने की जिज्ञासा हमारे अंदर नहीं होती, तो धर्म का उदय ही नहीं होता। हर मनुष्य के मन में यह सवाल होना चाहिए कि मेरा जन्म क्यों हुआ है? यह बात मन में बैठा लो, जो कुछ होता है उसका कुछ कुछ कारण होता है।
धनवान होने का अभिमान पतन का कारण
आचार्य श्री ने कहा कि, धनवान होना अच्छी बात है, लेकिन धनवान होने का अभिमान अच्छा नहीं है। दान करनेवाले काे जब खुद के त्यागी और दानी होने का अभिमान होने लगता है तब वह दुर्गुण की श्रेणी में जाता है। इससे सावधान रहने की आवश्यकता है। खासतौर से वेसे लोगों को जो अपने आप को सबसे अच्छा या सरल समझते हैं। बहुत वेद पढ़ लेने से कोई विद्वान नहीं हो जाता। अज्ञान में भटकने वाले लोग घोर अंधकार में चले जाते हैं। लेकिन, जो ज्ञान की उपासना करते हैं, विद्या की आराधना करते हैं, वे और घोर अंधकार में भटकते हैं। आखिर ऐसा क्यों? इन्हीं बातों को समझने के लिए सद्गुरु की जरूरत होती है। इस अवसर पर समाजसेवी एलसी पाटीदार रामनगर, पुरषोत्तम पाटीदार बावड़ी, गंगाराम पाटीदार, दुलीचंद पाटीदार, ईश्वर पाटीदार तिलगारा, पूनमचंद गहलोत पेटलावद आदि उपस्थित थे।
धर्म और विज्ञान में अंतर की व्याख्या
पंडित श्री शास्त्री ने कहा कि, मती की जिज्ञासा की जब पूर्ति हो जाती है, तो वह बुद्धि का रूप ले लेती है। मति सती हो सकती है, लेकिन वह श्रद्धा का रूप ले ले। धर्म भी मानने की चीज है। विज्ञान मान्यताओं पर विश्वास नहीं करता है। विज्ञान अनुसंधान करता है। अध्यात्म पहले मानता है, स्वीकार करता है, तब अनुभूति की यात्रा करता है। जबकि विज्ञान अनुसंधान की यात्रा करता है और उससे जो निकलकर आता है, उसे ही मानता है। विज्ञान की यात्रा बाहर की ओर होती है और धर्म-अध्यात्म की यात्रा अंदर होती है। धर्म और विज्ञान में यही अंतर है।
जो भय से तुम्हारी रक्षा करता है, वह मंत्र है। भागवत कथा मृत्यु को महोत्सव बनाने का मंत्र है। हर ग्रंथ परमहंसों का अपना इतिहास है। भागवत संसार के भय से रक्षा करता है। ज्ञान, वैराग्य, प्रेम आदि का मतलब बताता है। भक्ति इसकी शक्ति है। आस्तिक व नास्तिक शब्द पर प्रकाश डाला और कहा कि वेद सम्मत है, वह आस्तिक और जो वेद को स्वीकार नहीं करता, वह नास्तिक है। यहां वेद को ही प्रमाणभूत माना गया है। प्रेम पर चर्चा करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि प्रेम शब्द बहुत ऊंचा है। प्रेम सिर्फ आकर्षण नहीं है। स्वार्थरहित निर्भयता ही प्रेम है। वासना और प्रेम के बीच बड़ा अंतर है। आयोजक परिवार के बसंतीलाल सोलंकी, वैभव सोलंकी, नमन पडियार, कुंजन मालवीया, अनोखीलाल पडियार, डाडमचंद्र पडियार ने व्यासपीठ की पूजन की है। कथा के विराम समय पर आरती संपन्न हुई।